Sunday, July 26, 2009

rimjhim gire sawan...



हवा के झोंके से कॅलंडर के उड़ते पन्नो की आवाज़ ने मंजूषा को अतीत से वर्तमान में ला दिया.खिड़की के पास खड़ी बारिश की बूँदों को देखती हुई वो पहुँच गयी थी बरसात की उस दोपहर में जब दो नज़रों ने उसे एहसास कराया था अपने होने का.साथ साथ खेलते हुए बड़े हुए लेकिन ये भाव कुछ अबूझा सा था..कॉलेज की गर्मियों की छुट्टियों में मंजूषा और रितेश जब घर आते थे तब एक दूसरे के संगी साथी बस वही दोनो हुआ करते थे .घंटों बातें होती किताबें ग़ज़लें गीत मूवीस फिलॉसफीस और भी ना जाने क्या क्या एक अंतहीन सा सिलसिला चलता रहता था.लड़ते झगड़ते बहस करते कभी सहमत होते कभी असहमत होते और वक़्त पता ही नहीं चलता की कहाँ गुज़र गया...ऐसे ही एक दिन मंजूषा रितेश के घर आई हुई थी कि कुछ समय बाद ज़ोरों की बरसात होने लगी.आंटी ने उसे रोक लिया लंच के लिए ज़बरदस्ती..काफ़ी समय बीत जाने पर भी बरसात थी कि रुकने का नाम नहीं ले रही थी..माँ को फोन करना चाहा तो फोन डेड थे.. तभी कुछ समय बाद माँ का फोन आया और बिना कोई कैफियत सुने माँ ने अच्छी डाँट पिलाई मंजूषा को.. असहाय सा महसूस करते हुए मंजूषा की आँखें भरी बदली के समान भर आई..उस पल जैसे किसी अथाह समुंदर सी गहरी आँखों ने घेर लिया उसे और कहा कि मैं हूँ ना ..जितना भी बरसोगी समा लूँगा खुद में ... और मंजूषा सिमटती चली गयी खुद में..ना बरसने दिया ना बहने दिया ..अथाह समुंदर हिलोरें लेता रहा पर उसने खुद को भीगने नहीं दिया ....
आज अचानक क्यूँ वो नज़रें याद आ रही हैं..सोचती हुई आईने के सामने जा कर खड़ी हो गयी मंजूषा ..गले में पड़ा मंगल सुत्र.. भरी हुई माँग..अग्नि के चारो ओर लिए गये फेरे ,क्या संचित की आँखों में वो मैं हूँ ना वाला भाव जागृत करा पाने में सफल रहे हैं??? कोमल भाव जो एक नाज़ुक बेल की तरह इस भाव से लिपटे रहना चाहते हैं तना समझ कर वो ही शायद इधर उधर डोल रहे हैं इस भाव की तलाश में..द्वंद छिड़ गया मंजूषा के मन में..मन का एक कोना जो खाली लगता है ऐसे हर क्षण में..वही भटकता हुआ पहुँच जाता है कुछ ऐसा तलाश करने जो उसे भर सके..पर क्या ये मरीचिका नहीं..उस एक पल का भाव क्या संचित के दिए हुए दृढ़ धरातल और खुले आकाश को भर पाएगा ..????
सर को झटक के मंजूषा ने अपने चारों तरफ निगाह दौड़ाई..पगली क्यूँ कमज़ोर पड़ रही है..जैसे उसी का प्रतिबिंब उससे कह रहा हो..संचित तुझे तने से लिपटी हुई बेल नहीं स्वयं का एक तना बनने का अवसर देते हैं ..जो स्वयं के साथ साथ दूसरों का संबल भी बन सके.. और यही उनके प्यार का तोहफा है तेरे लिए..सच्चा प्यार कभी आश्रित नहीं करता और ना होता है.. वो तो एक धारा है जो जहाँ भी बहती है सब कुछ हरा भरा करती जाती है..अपने हर खुशनुमा पल को सहेज यादों में और वर्तमान की खुशियों को अनदेखा मत कर ... पहचान उन्हें..और समेट ले अपनी झोली में.....
और मंजूषा बाल्कनी में पहुँच कर बारिश की बूँदों को चेहरे पर महसूस करते हुए गुनगुना उठी...
रिमझिम गिरे सावन...सुलग सुलग जाए मन...

1 comment:

  1. बस ये मन ही तो सुलग सुलग जाता 😄😄😄
    भावनाप्रधान कहानी ।

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