Saturday, March 27, 2010

है तुझे भी इजाज़त--(दूसरी किस्त)

रेवती कि ज़िन्दगी ने जैसे एक नया मोड़ ले लिया था . जहाँ पहले उसका समय काटे नहीं काटता था अब जैसे हर क्षण चुरा चुरा के अपने लिए जीना चाहती थी.सुबह आँख खुलने के साथ ही स्वयं के साथ समय बिताना शुरू होजाता ..मार्निंग वाक के बाद हल्का फुल्का योगा करके स्नेहा को स्कूल भेजती ..नौकरी ,क्यूंकि पहले समय काटने का एक साधन थी इसलिए अब उसने उसे छोड़ दिया ..उसके बाद घर के रोज़मर्रा के कामों से निवृत हो लाइब्रेरी चली जाती..कुछ पत्रिकाएँ उलटती पलटती और कुछ अपने मन कि पुस्तकें ले आती घर पर पढने के लिए ..शाम को स्नेहा के साथ समय बिताना उसे बहुत पसंद था..एक सितार ले आई थी वह और उस पर सुरों की साधना करना उसे खूब भाता था ..दिन प्रति दिन रियाज़ करने से गले में माधुर्य बढ़ता जा रहा था ..ज़िन्दगी को जैसे एक दिशा मिल गयी थी.. संजय का अस्तित्व उन दोनों के लिए बस एक नाम का ही रह गया था.. संजय भी उनसे मानसिक या भावनात्मक रूप से जुड़ा नहीं पाता था खुद को..उन लोगों को पैसे भेज कर ही जैसे उसके कर्त्तव्य की इतिश्री हो जाती थी..पहले जहाँ उसके साल में चक्कर भारत के लगते थे अब वो ही चक्कर तक सिमट कर रह गया था .रेवती ने सुना था कि संजय वहां एक शादीशुदा ज़िन्दगी बसर कर रहा है..पर वो जैसे संजय से निर्लिप्त सी हो गयीथी..एक सामाजिक बंधन के तहत ही सही संजय ने कभी उपेक्षा नहीं की थी उन दोनों की..इसलिए रेवती ने भी उससे कभी कुछ पूछने की ज़रुरत नहीं समझी..भारत आना भी महज एक खानापूर्ति सी रह गया था..ना स्नेहा को इंतज़ार होता था पिता का ना रेवती को पति का.. हाँ स्नेहा की उपलब्धियों को संजय बहुत गर्व से अपने नाम करा ले जाता था..दसवीं के बोर्ड में पूरे देश में प्रथम स्थान प्राप्त करने वाली स्नेहा के पिता होने का गौरव उसने खूब भुनाया था .."आखिर बेटी किसकी है "..परन्तु वहीं जब स्नेहा ने दैनिक समाचारपत्र को दिए गए अपने interview में अपनी इस उपलब्धि का श्रेय माँ को दिया तो रेवती भीग उठी .सबकी नज़रें बचा कर उसने आँखों की कोरों पर छलक आये आँसुओं को पोंछ लिया ..स्नेहा ने अपनी दिशा चुन रखी थी.. उसे भारतीय प्रशासनिक सेवा में जाना था और उसके लिए वो पूरी तरह तैयार थी ..देश विदेश की ख़बरों के बारे में अपडेट रहना ..देश की राजनीतिक उथलपुथल ..किसी भी विषय पर उसके अपने विचार और उनको कहने की क्षमता उसमें विकसित हो रहीथी..इसमें भी रेवती उसका खूब साथ देती थी ..दोनों दो सहेलियों की तरह आपस में बहस करती ..स्नेहा की दुनिया माँ तक और माँ की दुनिया स्नेहा तक ..बारहवीं की परीक्षा में भी स्नेहा ने देश में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया ..परन्तु अब उसके जीवन को गतिमय रखने के लिए उसे किसी अच्छे कॉलेज में एडमिशन लेना था और उसके लिए उसे रेवती से दूर होना था ..मन बैठा जा रहा था रेवती का ..पर ये तो होना ही था ..स्नेहा ने दिल्ली के लेडी श्री रामकालेज में एडमिशन ले लिया ..और अपने जीवन लक्ष्य को साधने में जुट गयी..रेवती की ज़िन्दगी में जैसे एक ठहराव गया ..वह ज़िन्दगी जो अब तक स्नेहा को केंद्र बना कर उसके इर्दगिर्द घूमती थी जैसे केन्द्र्हीन सी महसूस करने लगी खुद को..ना उसका पढने में मन लगता ना स्वर साधना में ..स्नेहा माँ के लिए चिंतित होने लगी थी..उससे हमेशा फ़ोन पर संपर्क बनाये रखती उसको प्रोत्साहित करती लाइब्रेरी जाने को लोगों से मिलने जुलनेको..रेवती भी चाहती थी स्वयं को और जानना समझना .. पर एक उदासी सी घिरती जा रही थी उसके मन पर..
अचानक एक दिन स्थानीय समाचारपत्र में एक संगीत संध्या के बारे में खबर पढ़ी ..उसमें आवाहन था स्थानीय कलाकारों को सामने कर अपनी प्रतिभा की पहचान कराने का मौका देने का .रेवती ने सोच लिया की उसे इस उदासी को झटक देना है नहीं हारेगी वो इन नकारत्मक विचारों के सामने.. स्नेहा नज़रों से ही तो दूर हुई है.. मेरी आत्मा में समायी हुई वो किस तरह दूर हो सकती है मुझसे.. और मुझे इस तरह दुखी देख कर क्या वो खुश रह पाएगी ..दृढ निश्चय कर रेवती ने उस समाचार में दिए हुए नंबर पर फ़ोन किया और रजिस्ट्रेशन की डिटेल्स ले कर अगले ही दिन जा कर रजिस्ट्रेशन करवा आई ..और डुबो दिया खुद को उस कार्यक्रम के लिए तैयार होने में ..फिर से ज़िन्दगी को कुछ दिन के लिए ही सही दिशा मिल गयी थी ...

(क्रमश:)
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