रेवती अब अपने को एक नयी नज़र से देख पाने में सक्षम हो रही थी.एक बेटी,बहन, पत्नी और माँ से हट कर एक स्त्री के रूप में..अपनी भावनाओं का अवलोकन करना और उनसे जुड़े द्वन्द का समाधान करते हुए उन सोचों उबरना उसको ऐसा लगता था जैसे एक एक सीढ़ी चढ़ती हुई वह अपनी मंज़िल की तरफ बढ़ी जा रही है ..उसके द्वंदों का समाधान करने में चंद्रप्रभा जी का बहुत बड़ा योगदान था.आत्मीयता का रिश्ता तो उनसे पहले दिन ही जुड़ गया था जो अब अंतरंगता पर पहुँच चुका था ..कई सवालों के जवाब रेवती को पुस्तकों में मिल जाते थे तो कई का चिंतन मनन वह चंद्रप्रभा जी से करती थी ..जिसमें से एक था रजत के प्रति उसका जुडाव जिसे रेवती समझ नहीं पाती थी कि उम्र के इस पड़ाव पर यह कैसा जुडाव महसूस हो रहा है और क्यूँ ..चंद्रप्रभा जी ने उसकी इस दुविधा का समाधान करते हुए उसे समझाया-रेवती,भावनाएं उम्र की मोहताज नहीं होती..युवा महसूस करना शरीर का नहीं आत्मा का एहसास है ..तुम्हारे एसेंस को रजत ने छुआ है..वो कोमल भावनाएं जो वक़्त की गर्द में कहीं दबी पड़ी थी उन तक उसके स्पंदन पहुँच गए हैं..और तुम प्रेममय महसूस कर रही हो..बेसिकली प्रेम तो तुम्हारे अन्दर ही था रजत के होने से उसका एहसास तुम्हें हो गया है..अपने जीवन के हर क्षण का स्वागत करो और कृतज्ञ महसूस करो कि तुमने प्रेम को महसूस किया है उसका आनंद लो .ओशो ने कहा है -"पुरुष और स्त्री भिन्न हैं , स्त्री का सम्बन्ध मन की गहराईयों से होता है ....उसके व्यक्तित्व को तो काव्य की गहराईयों और काव्य की अनबूझ ऊँचाइयों तक ले जाने की ज़रुरत है . स्त्री याने प्रेम ." अब जब तुम अपने अन्दर की स्त्री को पहचानने लगी हो तो प्रेम तो प्रस्फुटित होगा ही..उस भाव का दमन करके तुम ईश्वर का अपमान करोगी.. .भावनाओं का दमन करके इंसान सोच लेता है कि उसने भावनाओं पर काबू पा लिया है पर होता इसका उल्टा ही है ..दमित भावनाएं इंसान को अपना दास बना लेती हैं..और हर पल इंसान उनसे बंधा हुआ महसूस करने लगता है.अंततः: वो दमित भावनाएं विकारों में परिवर्तित हो जाती हैं .यह तुम जो इतने ऊहापोह में हो वह इसलिए कि तुमने खुद इसको स्वीकार नहीं किया है..अपनी भावनाओ को वैसे ही देखो जैसे कोई चलचित्र परदे पर चल रहा हो..कुछ क्षण के लिए चलचित्रों के किरदारों से हम जुड़ा हुआ महसूस कर सकते हैं पर होते तो पृथक ही हैं ना..तुम अपनी भावनाओ को साक्षी भाव से देखोगी तो उनसे पार हो जाओगी. तब यह ग्लानि जो इस समय तुम्हारी कंडिशनिंग आफ माईंड के कारण तुम्हें महसूस हो रही है इससे उबर जाओगी ..प्रेम संकुचन नहीं विस्तार देता है..अपने अन्दर प्रस्फुटित इस प्रेम का विस्तार करो.. उसको एक व्यक्ति विशेष के कारण घटित प्रेम ना समझ कर ईश्वर की तुम पर हुई कृपा समझो.. और ईश्वर की बनायीं इस दुनिया में उसको बांटो..देखना कितना सुकून मिलता है..भय,क्रोध,अहंकार,सब तिरोहित हो जाते हैं इस भाव के सामने .प्रेम बाँटने से बढ़ता है..
जहाँ तक रजत की बात है वह मोह माया से परे है..हर रिश्ते को जीता हुआ भी उससे निर्लिप्त .और तुम भी अपने को इतना क्यूँ बाँध रही हो.. हर क्षण को खुले मन से स्वीकार करो.. जो तुम्हें मिलना है उसे तुम रोक नहीं सकती जो तुम्हारा नहीं उसे तुम पा नहीं सकती.. जो भी है बस यही एक पल है.. जी लो इस पल में. बस इतना ध्यान हमें रखना होता है कि हम किसी को कष्ट ना पहुंचाएं..
रेवती ने कहा-"पर यह तो गलत है ना ..समाज की नज़रों में ."
चंद्रप्रभा जी ने कहा -" समाज क्या है ? और सही गलत किसने बनाएं हैं.?.हाँ मैं मानती हूँ कि व्यवस्था बनाये रखने के लिए समाज ने कुछ नियम बनाये हैं..पर वो किन परिस्थितियों में बने और किस प्रकार के जनसमूह के लिए बने वह जान लेना आवश्यक है..अगर सामाजिक व्यवस्था नहीं होगी तो व्यभिचार ,अनाचार फैल जाएगा ..परन्तु एक स्वस्थ मन-मस्तिष्क वाला इंसान समाज की भेड़ चाल से खुद को अलग करके सोच सकता है और उसके क्रियाकलापों से समाज का कोई अहित नहीं हो रहा तो वह अपनी भावनाओं का दमन क्यूँ करे.. समाज की दुहाई देना हिपोक्रेसी है ..मुझे ही देखो ना..समाज की किसी सोच से मेरा व्यक्तित्व मेल नहीं खाता ..स्वयं के लिए जीती हूँ स्वयं के निर्णय लेती हूँ किसी का अहित नहीं सोचती..और भरसक प्रयत्न करती हूँ दूसरों को ख़ुशी बांटने के लिए .अविवाहित रहने का निर्णय इसीलिए लिया क्यूंकि मेरे इस व्यक्तित्व को समझने वाला पुरुष मिला नहीं कभी .और शायद ऐसे पुरुष होते भी बहुत ही कम हैं .रजत उनमें से एक है ..सामाजिक जिम्मेदारी के साथ साथ व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संतुलन हर किसी के बस की बात नहीं होती उसके लिए बहुत दृढ चरित्र और व्यक्तित्व चाहिए होता है . "
रेवती चंद्रप्रभा जी की बातों को ध्यान से सुन और समझ रही थी..सही कह रही हैं वह..उसने हमेशा अपनी इस भावना को हीन दृष्टि से ही देखा है ..और जितना वह इसको दबाने ,छुपाने का प्रयत्न करती है उतना ही जैसे भावना मुखरित हो उठती है..
. . पिछली बार जब स्नेहा आई थी तब वह कह गयी थी माँ से -" माम यु आर इन लव ..आँखों से दिखता है आपकी ..आई एम् हैप्पी फार यू.."
कितनी बड़ी बड़ी बातें करती है ये नन्ही सी नेही..मतलब सब कुछ सबको दिख रहा है और मैं ही खुद को इजाज़त नहीं दे रही हूँ इस घटित प्रेम को स्वीकारने की ..
.. अपनी इन भावनाओं के दमन के कारण शिखा जी के सामने भी वह सहज नहीं रह पाती..जबकि शिखा जी कितनी सहज हैं..कितना स्नेह करती हैं उससे और स्नेहा से.. और रजत भी स्नेहा के लिए जैसे कुछ भी करने को तत्पर रहते हैं..
रेवती ने महसूस किया कि जबसे उसने अपने हर भाव को स्वीकारना शुरू किया है तबसे उसकी उत्कंठा कम होती जा रही है..और वह आतंरिक तौर पर बहुत शांत महसूस कर रही है ..एक स्त्री की यह आतंरिक यात्रा वह स्नेहा से ज़रूर बांटेगी ..एक माँ होने के नाते नहीं बल्कि एक नारी के नाते..उसके अनुभव उसकी बेटी की राह प्रशस्त कर सकें इससे ज्यादा सुकून उसे क्या होगा ..
रेवती 'दृष्टि' से एक कार्यकर्त्ता के तौर पर जुड़ गयी थी ..कितना कुछ है करने के लिए.. वह सोचा करती थी कि हम घर में बैठे सरकार के कार्यों की समीक्षा करते हुए देश की बदहाली का रोना रोते रहते हैं..पर आगे बढ़ कर अपने से कमजोर वर्ग के उत्थान के बारे में क्यूँ सोच नहीं पाते ..शिखा जी, रजत जी, और चंद्रप्रभा जी के सान्निध्य में उसने बहुत कुछ सीखा बहुत कुछ बांटा ..जब किसी की बुझती उम्मीदों में उसके प्रयासों से आशा की किरण जगमगा जाती थी तब उसे जैसे असीम सुख की अनुभूति होती थी ..'दृष्टि' द्वारा संचालित एक प्राथमिक शिक्षा केंद्र में उसने शिक्षिका बनना स्वीकार किया.. और बच्चों को किताबी ज्ञान के साथ साथ जीवन का दर्शन भी बता कर उनमें एक सुदृढ़ चरित्र का निर्माण करने का प्रयास करना उसको असीम संतोष से भर जाता.ज़िन्दगी का अर्थ मिलने लगा था उसे..
समय बीतते देर नहीं लगती..स्नेहा ने बी.ए. पूरा कर के सिविल सर्विसेस का एक्साम भी दे दिया था और इस समय रेवती के पास आ कर रिजल्ट का इंतज़ार कर रही थी .रेवती और स्नेहा में खूब बातें होती थी..स्नेहा माँ के हृदय को समझती थी .एक दिन उसने पूछा - "माँ, प्रेम का इज़हार या प्रतिकार ना होने पर कुछ अधूरा नहीं लगता क्या ? "
रेवती ने मुस्कुरा कर कहा -'प्रेम तो एक स्थिति है जो घटित होती है किसी भी जीवन में.बाह्य परिस्थितियां कभी कभी कारण बन जाती हैं उस स्थिति के घटित होने का ..परन्तु यह तो स्वयं में विद्यमान है..प्रेम एक दैवीय भावना है जो हृदय को विस्तार देती है ..प्रेम का एहसास होने के बाद दुनिया की हर शै का मतलब ही बदल जाता है जैसे.. तब यह दुनिया मानवीय दुनिया ना लग कर ईश्वरीय दुनिया लगने लगती है ..और उस दुनिया को हम अपने प्रयासों से कैसे बेहतर बना सकते हैं इसकी ऊर्जा हमें वह आतंरिक प्रेम देता है "
उसने आगे कहा -" जीवन में सबसे ज़रूरी है खुद के प्रति ईमानदार रहना..तुम इस सूत्र को याद रखो..बस.. जिस प्रोफेशन में तुम जाना चाहती हो वहां बहुत बाधाएं आएँगी पर खुद से ईमानदारी तुम्हें संबल देगी उन बाधाओं को पार करने के लिए.."
स्नेहा उस एक महीने में बहुत कुछ अर्जित कर चुकी थी माँ से.. रिजल्ट आशानुरूप ही था ..और उसका सेलेक्शन आई.ए.एस .के लिए हो गया ..जोरदार सेलीब्रेशन हुआ..संजय भी आये थे. उनके तो कदम ज़मीं पर नहीं पड़ रहे होजैसे.. रजत ,शिखा ,चंद्रप्रभा जी इतने खुश थे जैसे उनकी बेटी का ही सेलेक्शन हो गया हो..रेवती की तपस्या सार्थक हुई ..स्नेहा को एक सम्पूर्ण व्यव्क्तित्व बनाने में उसकी अपनी यात्रा का भी कम योगदान नहीं रहा ..लाल बहादुरशास्त्री एकेडेमी में स्नेहा को ट्रेनिंग के दौरान शिशिर मिला ..जिसको उसने जीवनसाथी के रूप में चुन लिया ..दोनों एक दूसरे के पूरक नज़र आते थे ..शिशिर का व्यक्तित्व और सोचें काफी कुछ रजत से मिलती थी ..रेवती जानती थी की वह स्नेहा को पूर्ण नारीत्व प्रदान करने में समर्थ होगा ..शिशिर के माता पिता से मिल कर सब बातें तय हो गयी और दोनों की फर्स्ट पोस्टिंग से पहले ही दोनों को दाम्पत्य सूत्र में बाँध देने का निर्णय ले लिया गया ..संजय को बहुत छुट्टी नहीं मिलनी थी इसलिए विवाह की पूरी जिम्मेदारी रजत और शिखा ने अपने कंधो पर ले ली संजय चाहता था कि अब रेवती उसके पास आबूधाबी रहे ..पर रेवती को अपनी ज़िन्दगी का मकसद मिल चुका था 'दृष्टि' से जुड़ने के बाद वह उससे दूर नहीं रह सकती थी.. उसने संजय से कहा भी कि बहुत कमा लिया अब पैसा.. तुम्ही क्यूँ नहीं वापस आ जाते.. संजय इस पर चुप हो गया ..
देखते देखते शादी का समय आ गया ..संजय एक हफ्ता पहले आ पाया था शादी के.... संजय ने स्नेहा से पूछा कि उसे पापा कि ओर से क्या स्पेशल गिफ्ट चाहिए ..पैसों कि चिंता ना करे ..बस अपनी इच्छा बता दे.. स्नेह मुस्कुराउठी, बोली- "पापा , जीवन की हर ख़ुशी पैसों से नहीं खरीदी जा सकती.. आप ही सोचो क्या आप खुश महसूस करते हो ..इतना पैसा होने के बाद भी "
संजय चकित सा बेटी को देखता रह गया ..मुस्कुराते हुए बोला - 'माँ ने खूब घुट्टी पिलाई है "
और दोनों हंस पड़े ..और स्नेहा ने पिता से कहा -पापा,आप मुझे कुछ देना चाहते हो तो माँ को अपना साथ देदो..एक साथी की तरह ..तथाकथित पति कि तरह नहीं , उसके अन्दर छुपी औरत को सम्पूर्ण कर दो अपने साथ से..बस यही मेरे विवाह का तोहफा होगा आपकी तरफ से .."
संजय ने स्नेहा को गले से लगा लिया और कहा -मेरी बेटी तो मुझसे भी बड़ी हो गयी है ,मैं समझ गया हूँ ..इतने सालों मैंने भी कोशिश की है खुद को जानने समझने की..मैं वापस आऊंगा बहुत जल्द ..जैसे ही भारत में मुझे नौकरी मिलती है.. पैसे की अब कोई इच्छा नहीं रह गयी है..तुम लोगों के पास रहना चाहता हूँ अब.. थक गया हूँ इस दोहरी ज़िन्दगी से .."
रेवती पीछे खड़ी यह सब सुन रही थी.. ख़ुशी से उसके आंसू छलक आये .. और संजय ने रेवती और स्नेहा दोनों को अपने आगोश में ले लिया.. रेवती का सपना आज पूर्ण हुआ था जैसे.."
संजय की आवाज़ सुन कर रेवती अतीत से वर्तमान में लौटी.. संजय रजत के साथ खड़े थे और कह रहे थे -" अरे भाई बेटी के जाने का इतना ग़म की रजत और शिखा जी को भी भूल गयी तुम !! " ..रेवती मुस्कुरा दी ..बोली-" शायद थकन के कारण आँख लग गयी थी ." संजय ने कहा कि बाहर का सब काम सिमट चुका है.. अभी कॉफ़ी वाले को कह कर आया हूँ ४ गर्मागर्म कॉफ़ी भेजने को..चलो मुंह धो कर आओ ..रेवती मुस्कुराती हुई उठ गयी..कितना हल्का महसूस कर रही थी वह ..वही जानती है.. जीवन की एक नयी शुरुआत .. कितनी अदभुत यात्रा है यह भी .....
और अनजाने में रेवती गुनगुना उठी -
इन दिनों दिल मेरा ,मुझसे ये कह रहा
तू ख्वाब सजा ,तू जी ले ज़रा
है तुझे भी इजाज़त,कर ले तू भी मोहब्बत ..
रेवती समझ चुकी थी कि ज़िन्दगी जीने के लिए किसी की इजाज़त की ज़रुरत नहीं होती..सिवाय अपने दिल के ....
और इस तरह रेवती और स्नेहा की कहानी ने यहाँ एक नया मोड़ लिया .... .................
आशा है अब तक की यात्रा आप सबको पसंद आई होगी..
(समाप्त) .. '
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Sometimes we find it difficult to decide something against the norm but one should always listen to his heart !
ReplyDeleteBeautiful story !
bahut hi badiya....
ReplyDeleteA Silent Silence : tanha marne ki bhi himmat nahi
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Achchhie abhivyakti---Bhavpoorn hi nahin vicharottejak kahani hai-.-.badhaiii
ReplyDeleteपहली बार आपके इस ब्लाग पर आना हुआ है । आपका यह उपन्यास थोडा फुर्सत में ही पढना हो सकेगा.
ReplyDeleteब्लाग पर आना सार्थक हुआ ।
ReplyDeleteकाबिलेतारीफ़ है प्रस्तुति ।
आपको दिल से बधाई ।
आप अपने ब्लाग की सेटिंग मे(कमेंट ) शब्द पुष्टिकरण ।
ReplyDeleteword veryfication पर नो no पर
टिक लगाकर सेटिंग को सेव कर दें । टिप्प्णी
देने में झन्झट होता है । अगर न समझ पायें
तो rajeevkumar230969@yahoo.com
पर मेल कर देना ।
satguru-satykikhoj.blogspot.com
नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं
ReplyDeleteमेरा भी हाल कुछ सुशील बाकलीवाल जैसा ही है , लेकिन यहाँ ये पोस्ट तो आरम्भ में थोड़ी बड़ी दिखाई दी , पर काफी अच्छे तरीके से वर्णित थी , लगता है , कुछ भूलने का दर था , जल्दी - जल्दी वर्णित करते चले गए आप इसको और बढ़िया लगी !
ReplyDeletehappy end courtesy Sneha.....betiyan ho to aisi....kahte hai ek aurat hi aurat ke jajbato ko smaz sakti hai.....!
ReplyDeleteHi..
ReplyDeletePichhli kahni to silsilevar nahi padh saka...ab agli kahani post karna shuru keejiye...es baar avashya padhunga...
Pratiksha main..
Deepak..
काबिलेतारीफ़ है प्रस्तुति| धन्यवाद्|
ReplyDeleteBahut dino baad koi kahani poori padhi hai. Achchi prastuti.
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