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(धारावाहिक कहानी -प्रथम अंक)
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मुग्धा बहुत उत्साहित थी . अगले शनिवार को उसके ग्रेजुएशन बैच का गेट टुगेदर था .२५ साल ..ओह .!! कितना लम्बा अरसा बीत गया ..२५ साल ऐसा लग रहा है बीच में से हवा के झोंके के साथ उड़ कर कहीं चले गए हैं और मुग्धा वापस अपने कॉलेज के दिनों में पहुँच गयी ..
कॉलेज का पहला दिन..पहली बार रंगीन कपड़ों में पढने आना ..बड़े होने का एहसास और स्वयं सबसे जूनियर होने का एहसास दोनों ही एक अजब सी मनोस्थिति बना दे रहे थे मुग्धा के लिए ..बारहवीं तक सह-शिक्षा स्कूल में पढने वाली बिंदास मुग्धा इस समय सहमी सहमी सी किसी जाने पहचाने चेहरे की तलाश में कोरिडोर में बढ़ी जा रही थी . नोटिस बोर्ड पर लगे क्लास शेड्यूल के अनुसार रूम नंबर ढूँढने में उसे दिक्कत नहीं हुई ..बी.एससी. प्रथम वर्ष की कक्षा पहले तल पर थी ..जब मुग्धा क्लास में पहुंची तो लगभग सभी सीट्स भर चुकी थी ..तीसरी पंक्ति में एक सीट खाली देख मुग्धा वहीं जा कर बैठ गयी ...और उसे एहसास हुआ कि उसके बराबर में बैठा हुआ छात्र लगातार उसे देख रहा है.. उसने अचकचा कर उसकी तरफ देखा तो हतप्रभ रह गयी.."राजुल" और यहाँ ..!!!
और पिछले ४ साल की घटनाएं उसकी नज़रों के सामने दौड गयी ..नवीं कक्षा में पापा के ट्रान्सफर के साथ ही सिन्हा अंकल का भी ट्रान्सफर उस प्रोजेक्ट पर हुआ था जो अभी शुरू ही हुआ था ..गर्मियों की छुट्टियाँ पहाड के समान हो गयी थी ..जब तक स्कूल न खुले तब तक कहाँ मन लगाये मुग्धा ..कोई संगी साथी नहीं .. ऐसे में सिन्हा अंकल का आना और उनके दो हमउम्र बच्चों का साथ बियाबान में फूल खिलने के समान था .. सिन्हा अंकल की बड़ी बेटी तनुश्री मुग्धा से दो साल बड़ी थी और उनका बेटा राजुल मुग्धा के ही बराबर .. मुग्धा को तो मानो पंख मिल गए .. सारे सारे दिन तीनो की बैठक जमती ..कभी ताश कभी कैरम ..कभी लूडो ..और शाम को लंबी दूरी का टहलना .. तीनो की खूब जमती थी एक दूसरे से ..' राजुल ' जब देखो तब टांग खिंचाई करता रहता था मुग्धा की.. और संवेदनशील मुग्धा रो पड़ती थी..फिर राजुल उसको घंटो मनाया करता था ..दोनों का एडमिशन भी एक ही स्कूल में हो गया था ..तनुश्री का स्कूल दूसरा था ..लेकिन जाते तीनो एक ही बस से थे .. बचपन की मासूमियत को झटका तब लगा जब एक दिन मुग्धा की मम्मी ने उसे कहा कि वो राजुल के साथ खेलना बंद कर दे...और दुनिया की ऊँच नीच समझा बुझा कर यह भी बताया कि राजुल की मम्मी नहीं चाहती कि वह लड़कियों के साथ खेले और जब उन्होंने राजुल को मना किया तो राजुल ने साफ़ इनकार कर दिया कि वह मुग्धा के साथ खेलना नहीं छोड़ेगा ..इसलिए उन्होंने मुग्धा को समझाने के लिए कहा है ..मुग्धा मान गयी और उसने राजुल से बात करना बंद कर दिया ...दो मासूमों की मित्रता दुनियादारी की भेंट चढ गयी .. और उसकी प्रतिक्रिया राजुल पर बेतरह उलटी हुई.. उसने मुग्धा की हर बात पर नज़र रखना शुरू कर दिया .. वह किससे बात कर रही है ..कैसे बात कर रही है .. कैसा करना चाहिए ,कैसा नहीं करना चाहिए ....और जब तब उसके व्यवहार पर आक्षेप लगाने उसके घर आ कर उसको दो चार सुना जाता ..मुग्धा को एक हमउम्र भाई की कमी महसूस होती थी और इस तरह का व्यवहार उसे एक सुरक्षा का एहसास कराता था जो शायद बालमन की सहज अनुभूति थी ...जो भी रहा हो दोनों के ही मन में एक दूसरे के लिए स्नेह और अपनापन था और दुनियादारी निभाने के लिए वे आपस में बात नहीं करते थे .. हालांकि स्कूल आते जाते समय या क्लास में कभी नज़रें मिल जाती तो एक स्नेहयुक्त मुस्कुराहट दोनों के ही चेहरों पर आ जाती थी ..राजुल के तमाम आक्षेपों के बावजूद मुग्धा के मन में उसके लिए कड़वाहट नहीं थी..
समय बीतता गया ... राजुल की पसेसिवनेस उसे समय असमय मुग्धा पर कटाक्ष करने को प्रेरित करती रहती थी ..किन्तु मुग्धा ने उसे कभी अहम् का मुद्दा नहीं बनाया ..किन्तु धीरे धीरे उसके स्नेह और ममत्व के भाव कम होते चले गए और 'राजुल' उसके लिए सिर्फ एक पूर्व परिचित बन कर रह गया ...
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क्रमश:
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