Wednesday, March 31, 2010

है तुझे भी इजाज़त....(समापन किस्त )

रेवती अब अपने को एक नयी नज़र से देख पाने में सक्षम हो रही थी.एक बेटी,बहन, पत्नी और माँ से हट कर एक स्त्री के रूप में..अपनी भावनाओं का अवलोकन करना और उनसे जुड़े द्वन्द का समाधान करते हुए उन सोचों उबरना उसको ऐसा लगता था जैसे एक एक सीढ़ी चढ़ती हुई वह अपनी मंज़िल की तरफ बढ़ी जा रही है ..उसके द्वंदों का समाधान करने में चंद्रप्रभा जी का बहुत बड़ा योगदान था.आत्मीयता का रिश्ता तो उनसे पहले दिन ही जुड़ गया था जो अब अंतरंगता पर पहुँच चुका था ..कई सवालों के जवाब रेवती को पुस्तकों में मिल जाते थे तो कई का चिंतन मनन वह चंद्रप्रभा जी से करती थी ..जिसमें से एक था रजत के प्रति उसका जुडाव जिसे रेवती समझ नहीं पाती थी कि उम्र के इस पड़ाव पर यह कैसा जुडाव महसूस हो रहा है और क्यूँ ..चंद्रप्रभा जी ने उसकी इस दुविधा का समाधान करते हुए उसे समझाया-रेवती,भावनाएं उम्र की मोहताज नहीं होती..युवा महसूस करना शरीर का नहीं आत्मा का एहसास है ..तुम्हारे एसेंस को रजत ने छुआ है..वो कोमल भावनाएं जो वक़्त की गर्द में कहीं दबी पड़ी थी उन तक उसके स्पंदन पहुँच गए हैं..और तुम प्रेममय महसूस कर रही हो..बेसिकली प्रेम तो तुम्हारे अन्दर ही था रजत के होने से उसका एहसास तुम्हें हो गया है..अपने जीवन के हर क्षण का स्वागत करो और कृतज्ञ महसूस करो कि तुमने प्रेम को महसूस किया है उसका आनंद लो .ओशो ने कहा है -"पुरुष और स्त्री भिन्न हैं , स्त्री का सम्बन्ध मन की गहराईयों से होता है ....उसके व्यक्तित्व को तो काव्य की गहराईयों और काव्य की अनबूझ ऊँचाइयों तक ले जाने की ज़रुरत है . स्त्री याने प्रेम ." अब जब तुम अपने अन्दर की स्त्री को पहचानने लगी हो तो प्रेम तो प्रस्फुटित होगा ही..उस भाव का दमन करके तुम ईश्वर का अपमान करोगी.. .भावनाओं का दमन करके इंसान सोच लेता है कि उसने भावनाओं पर काबू पा लिया है पर होता इसका उल्टा ही है ..दमित भावनाएं इंसान को अपना दास बना लेती हैं..और हर पल इंसान उनसे बंधा हुआ महसूस करने लगता है.अंततः: वो दमित भावनाएं विकारों में परिवर्तित हो जाती हैं .यह तुम जो इतने ऊहापोह में हो वह इसलिए कि तुमने खुद इसको स्वीकार नहीं किया है..अपनी भावनाओ को वैसे ही देखो जैसे कोई चलचित्र परदे पर चल रहा हो..कुछ क्षण के लिए चलचित्रों के किरदारों से हम जुड़ा हुआ महसूस कर सकते हैं पर होते तो पृथक ही हैं ना..तुम अपनी भावनाओ को साक्षी भाव से देखोगी तो उनसे पार हो जाओगी. तब यह ग्लानि जो इस समय तुम्हारी कंडिशनिंग आफ माईंड के कारण तुम्हें महसूस हो रही है इससे उबर जाओगी ..प्रेम संकुचन नहीं विस्तार देता है..अपने अन्दर प्रस्फुटित इस प्रेम का विस्तार करो.. उसको एक व्यक्ति विशेष के कारण घटित प्रेम ना समझ कर ईश्वर की तुम पर हुई कृपा समझो.. और ईश्वर की बनायीं इस दुनिया में उसको बांटो..देखना कितना सुकून मिलता है..भय,क्रोध,अहंकार,सब तिरोहित हो जाते हैं इस भाव के सामने .प्रेम बाँटने से बढ़ता है..
जहाँ
तक रजत की बात है वह मोह माया से परे है..हर रिश्ते को जीता हुआ भी उससे निर्लिप्त .और तुम भी अपने को इतना क्यूँ बाँध रही हो.. हर क्षण को खुले मन से स्वीकार करो.. जो तुम्हें मिलना है उसे तुम रोक नहीं सकती जो तुम्हारा नहीं उसे तुम पा नहीं सकती.. जो भी है बस यही एक पल है.. जी लो इस पल में. बस इतना ध्यान हमें रखना होता है कि हम किसी को कष्ट ना पहुंचाएं..
रेवती
ने कहा-"पर यह तो गलत है ना ..समाज की नज़रों में ."
चंद्रप्रभा जी ने कहा -" समाज क्या है ? और सही गलत किसने बनाएं हैं.?.हाँ मैं मानती हूँ कि व्यवस्था बनाये रखने के लिए समाज ने कुछ नियम बनाये हैं..पर वो किन परिस्थितियों में बने और किस प्रकार के जनसमूह के लिए बने वह जान लेना आवश्यक है..अगर सामाजिक व्यवस्था नहीं होगी तो व्यभिचार ,अनाचार फैल जाएगा ..परन्तु एक स्वस्थ मन-मस्तिष्क वाला इंसान समाज की भेड़ चाल से खुद को अलग करके सोच सकता है और उसके क्रियाकलापों से समाज का कोई अहित नहीं हो रहा तो वह अपनी भावनाओं का दमन क्यूँ करे.. समाज की दुहाई देना हिपोक्रेसी है ..मुझे ही देखो ना..समाज की किसी सोच से मेरा व्यक्तित्व मेल नहीं खाता ..स्वयं के लिए जीती हूँ स्वयं के निर्णय लेती हूँ किसी का अहित नहीं सोचती..और भरसक प्रयत्न करती हूँ दूसरों को ख़ुशी बांटने के लिए .अविवाहित रहने का निर्णय इसीलिए लिया क्यूंकि मेरे इस व्यक्तित्व को समझने वाला पुरुष मिला नहीं कभी .और शायद ऐसे पुरुष होते भी बहुत ही कम हैं .रजत उनमें से एक है ..सामाजिक जिम्मेदारी के साथ साथ व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संतुलन हर किसी के बस की बात नहीं होती उसके लिए बहुत दृढ चरित्र और व्यक्तित्व चाहिए होता है . "
रेवती चंद्रप्रभा जी की बातों को ध्यान से सुन और समझ रही थी..सही कह रही हैं वह..उसने हमेशा अपनी इस भावना को हीन दृष्टि से ही देखा है ..और जितना वह इसको दबाने ,छुपाने का प्रयत्न करती है उतना ही जैसे भावना मुखरित हो उठती है..
. . पिछली बार जब स्नेहा आई थी तब वह कह गयी थी माँ से -" माम यु आर इन लव ..आँखों से दिखता है आपकी ..आई एम् हैप्पी फार यू.."
कितनी बड़ी बड़ी बातें करती है ये नन्ही सी नेही..मतलब सब कुछ सबको दिख रहा है और मैं ही खुद को इजाज़त नहीं दे रही हूँ इस घटित प्रेम को स्वीकारने की ..
.. अपनी इन भावनाओं के दमन के कारण शिखा जी के सामने भी वह सहज नहीं रह पाती..जबकि शिखा जी कितनी सहज हैं..कितना स्नेह करती हैं उससे और स्नेहा से.. और रजत भी स्नेहा के लिए जैसे कुछ भी करने को तत्पर रहते हैं..
रेवती ने महसूस किया कि जबसे उसने अपने हर भाव को स्वीकारना शुरू किया है तबसे उसकी उत्कंठा कम होती जा रही है..और वह आतंरिक तौर पर बहुत शांत महसूस कर रही है ..एक स्त्री की यह आतंरिक यात्रा वह स्नेहा से ज़रूर बांटेगी ..एक माँ होने के नाते नहीं बल्कि एक नारी के नाते..उसके अनुभव उसकी बेटी की राह प्रशस्त कर सकें इससे ज्यादा सुकून उसे क्या होगा ..
रेवती 'दृष्टि' से एक कार्यकर्त्ता के तौर पर जुड़ गयी थी ..कितना कुछ है करने के लिए.. वह सोचा करती थी कि हम घर में बैठे सरकार के कार्यों की समीक्षा करते हुए देश की बदहाली का रोना रोते रहते हैं..पर आगे बढ़ कर अपने से कमजोर वर्ग के उत्थान के बारे में क्यूँ सोच नहीं पाते ..शिखा जी, रजत जी, और चंद्रप्रभा जी के सान्निध्य में उसने बहुत कुछ सीखा बहुत कुछ बांटा ..जब किसी की बुझती उम्मीदों में उसके प्रयासों से आशा की किरण जगमगा जाती थी तब उसे जैसे असीम सुख की अनुभूति होती थी ..'दृष्टि' द्वारा संचालित एक प्राथमिक शिक्षा केंद्र में उसने शिक्षिका बनना स्वीकार किया.. और बच्चों को किताबी ज्ञान के साथ साथ जीवन का दर्शन भी बता कर उनमें एक सुदृढ़ चरित्र का निर्माण करने का प्रयास करना उसको असीम संतोष से भर जाता.ज़िन्दगी का अर्थ मिलने लगा था उसे..
समय बीतते देर नहीं लगती..स्नेहा ने बी.. पूरा कर के सिविल सर्विसेस का एक्साम भी दे दिया था और इस समय रेवती के पास कर रिजल्ट का इंतज़ार कर रही थी .रेवती और स्नेहा में खूब बातें होती थी..स्नेहा माँ के हृदय को समझती थी .एक दिन उसने पूछा - "माँ, प्रेम का इज़हार या प्रतिकार ना होने पर कुछ अधूरा नहीं लगता क्या ? "
रेवती ने मुस्कुरा कर कहा -'प्रेम तो एक स्थिति है जो घटित होती है किसी भी जीवन में.बाह्य परिस्थितियां कभी कभी कारण बन जाती हैं उस स्थिति के घटित होने का ..परन्तु यह तो स्वयं में विद्यमान है..प्रेम एक दैवीय भावना है जो हृदय को विस्तार देती है ..प्रेम का एहसास होने के बाद दुनिया की हर शै का मतलब ही बदल जाता है जैसे.. तब यह दुनिया मानवीय दुनिया ना लग कर ईश्वरीय दुनिया लगने लगती है ..और उस दुनिया को हम अपने प्रयासों से कैसे बेहतर बना सकते हैं इसकी ऊर्जा हमें वह आतंरिक प्रेम देता है "
उसने आगे कहा -" जीवन में सबसे ज़रूरी है खुद के प्रति ईमानदार रहना..तुम इस सूत्र को याद रखो..बस.. जिस प्रोफेशन में तुम जाना चाहती हो वहां बहुत बाधाएं आएँगी पर खुद से ईमानदारी तुम्हें संबल देगी उन बाधाओं को पार करने के लिए.."
स्नेहा उस एक महीने में बहुत कुछ अर्जित कर चुकी थी माँ से.. रिजल्ट आशानुरूप ही था ..और उसका सेलेक्शन आई..एस .के लिए हो गया ..जोरदार सेलीब्रेशन हुआ..संजय भी आये थे. उनके तो कदम ज़मीं पर नहीं पड़ रहे होजैसे.. रजत ,शिखा ,चंद्रप्रभा जी इतने खुश थे जैसे उनकी बेटी का ही सेलेक्शन हो गया हो..रेवती की तपस्या सार्थक हुई ..स्नेहा को एक सम्पूर्ण व्यव्क्तित्व बनाने में उसकी अपनी यात्रा का भी कम योगदान नहीं रहा ..लाल बहादुरशास्त्री एकेडेमी में स्नेहा को ट्रेनिंग के दौरान शिशिर मिला ..जिसको उसने जीवनसाथी के रूप में चुन लिया ..दोनों एक दूसरे के पूरक नज़र आते थे ..शिशिर का व्यक्तित्व और सोचें काफी कुछ रजत से मिलती थी ..रेवती जानती थी की वह स्नेहा को पूर्ण नारीत्व प्रदान करने में समर्थ होगा ..शिशिर के माता पिता से मिल कर सब बातें तय हो गयी और दोनों की फर्स्ट पोस्टिंग से पहले ही दोनों को दाम्पत्य सूत्र में बाँध देने का निर्णय ले लिया गया ..संजय को बहुत छुट्टी नहीं मिलनी थी इसलिए विवाह की पूरी जिम्मेदारी रजत और शिखा ने अपने कंधो पर ले ली संजय चाहता था कि अब रेवती उसके पास आबूधाबी रहे ..पर रेवती को अपनी ज़िन्दगी का मकसद मिल चुका था 'दृष्टि' से जुड़ने के बाद वह उससे दूर नहीं रह सकती थी.. उसने संजय से कहा भी कि बहुत कमा लिया अब पैसा.. तुम्ही क्यूँ नहीं वापस जाते.. संजय इस पर चुप हो गया ..
देखते देखते शादी का समय गया ..संजय एक हफ्ता पहले पाया था शादी के.... संजय ने स्नेहा से पूछा कि उसे पापा कि ओर से क्या स्पेशल गिफ्ट चाहिए ..पैसों कि चिंता ना करे ..बस अपनी इच्छा बता दे.. स्नेह मुस्कुराउठी, बोली- "पापा , जीवन की हर ख़ुशी पैसों से नहीं खरीदी जा सकती.. आप ही सोचो क्या आप खुश महसूस करते हो ..इतना पैसा होने के बाद भी "
संजय चकित सा बेटी को देखता रह गया ..मुस्कुराते हुए बोला - 'माँ ने खूब घुट्टी पिलाई है "
और दोनों हंस पड़े ..और स्नेहा ने पिता से कहा -पापा,आप मुझे कुछ देना चाहते हो तो माँ को अपना साथ देदो..एक साथी की तरह ..तथाकथित पति कि तरह नहीं , उसके अन्दर छुपी औरत को सम्पूर्ण कर दो अपने साथ से..बस यही मेरे विवाह का तोहफा होगा आपकी तरफ से .."
संजय ने स्नेहा को गले से लगा लिया और कहा -मेरी बेटी तो मुझसे भी बड़ी हो गयी है ,मैं समझ गया हूँ ..इतने सालों मैंने भी कोशिश की है खुद को जानने समझने की..मैं वापस आऊंगा बहुत जल्द ..जैसे ही भारत में मुझे नौकरी मिलती है.. पैसे की अब कोई इच्छा नहीं रह गयी है..तुम लोगों के पास रहना चाहता हूँ अब.. थक गया हूँ इस दोहरी ज़िन्दगी से .."
रेवती पीछे खड़ी यह सब सुन रही थी.. ख़ुशी से उसके आंसू छलक आये .. और संजय ने रेवती और स्नेहा दोनों को अपने आगोश में ले लिया.. रेवती का सपना आज पूर्ण हुआ था जैसे.."

संजय की आवाज़ सुन कर रेवती अतीत से वर्तमान में लौटी.. संजय रजत के साथ खड़े थे और कह रहे थे -" अरे भाई बेटी के जाने का इतना ग़म की रजत और शिखा जी को भी भूल गयी तुम !! " ..रेवती मुस्कुरा दी ..बोली-" शायद थकन के कारण आँख लग गयी थी ." संजय ने कहा कि बाहर का सब काम सिमट चुका है.. अभी कॉफ़ी वाले को कह कर आया हूँ गर्मागर्म कॉफ़ी भेजने को..चलो मुंह धो कर आओ ..रेवती मुस्कुराती हुई उठ गयी..कितना हल्का महसूस कर रही थी वह ..वही जानती है.. जीवन की एक नयी शुरुआत .. कितनी अदभुत यात्रा है यह भी .....
और अनजाने में रेवती गुनगुना उठी -
इन दिनों दिल मेरा ,मुझसे ये कह रहा
तू ख्वाब सजा ,तू जी ले ज़रा
है तुझे भी इजाज़त,कर ले तू भी मोहब्बत ..

रेवती समझ चुकी थी कि ज़िन्दगी जीने के लिए किसी की इजाज़त की ज़रुरत नहीं होती..सिवाय अपने दिल के ....

और इस तरह रेवती और स्नेहा की कहानी ने यहाँ एक नया मोड़ लिया .... .................
आशा है अब तक की यात्रा आप सबको पसंद आई होगी..
(समाप्त)
.. '

Tuesday, March 30, 2010

है तुझे भी इजाज़त...(छठी किस्त)

चाय पीते हुए रेवती ने संजय से पूछा -"आप चलेंगे मेरे साथ? "

संजय ने कहा -"नहीं,मुझे कुछ दोस्तों से मिलने जाना है .तुम जाओ "

रेवती का मन हुआ कि जिद करे चलने के लिए..परन्तु ऐसा अधिकार उसने समझा ही नहीं था कभी और जिद करके ले जाने का भी क्या औचित्य , यदि संजय का अपना मन नहीं है .संजय अपनी ख़ुशी से चलेगा तो उसको भी आनंद आएगा .उधर संजय चाह रहा था कि रेवती उससे मनुहार करे और वह उस पर एहसान दिखता हुआ उसके साथ जाए.. जब वार्तालाप सहज नहीं होता तब ऐसे ही दोनों अपने मन में बातों को रोक लेते हैं और वही बातें ग्रंथियां बन जाती है..कितने चेहरे लगा लेते हैं दो इंसान एक ही छत के नीचे रहते हुए भी...

गाड़ी ठीक बजे गयी थी और रेवती कार्यक्रम के लिए निकल गयी ।चंद्रप्रभा जी उसका इंतज़ार ही कर रही थी पहुँचते ही सबसे पहले उन्होंने उसे 'दृष्टि" नामक एन .जी . के ट्रस्टी श्री रजत मेहता जी से मिलवाया .जाने माने उद्योगपति हैं॥"दृष्टि" की स्थापना उन्ही ने करी थी और आज यह संस्था सिर्फ रूडकी ही नहीं पूरे उत्तराखंड अंचल में ज़रूरतमंदों की सहायता के लिए जानी जाती है ..दूरदराज क्षेत्रों में शिक्षा मुहैया करना चिकित्सा सुविधा पहुँचाना कितने ही बेघर लोगों को घर और बेरोजगारों को रोजगार मुहैया कराये हैं इन्होने. . हृदय से कलाकार और बहुत ही डायनामिक व्यक्तित्व के स्वामी ..रेवती पर उनके व्यक्तित्व का असर पहली ही नजर में हो गया..ऊर्जा से भरपूर एक विनम्र व्यक्तित्व पैसा होने का घमंड कहीं छू भी ना गया हो जैसे..सौम्य मुस्कराहट स्नेहयुक्त तरल आँखें और गरिमापूर्ण भावभंगिमा ..उसके सामने हाथ जोड़ कर नमस्कार की मुद्रा में खड़े थे और कह रहे थे- "कल आपका गायन सुना ..तभी चंद्रप्रभा जी से अनुरोध किया था आपको यहाँ बुलाने का ..ऐसे ऐसे हीरे छुपे हैं हमारे शहर में हमें तो मालूम ही नहीं था " रेवती बस मुस्कुरा कर रह गयी .चंद्रप्रभा जी उन दोनों को वार्तालाप में व्यस्त छोड़ क्षमा मांग दूसरे इंतज़ामात देखने चली गयी रेवती सोच रही थी कि यहाँ हर इंसान कितना सहज है किसी की भी उपस्थिति से जरा भी बेचैनी नहीं होती .एक सुकून सा रहता है मन में .
रजत ने रेवती को सोच में डूबा देख कर पूछ लिया ॥और रेवती ने सहज भाव से अपनी सोच उजागर कर दी॥ रजत बहुत जोर से हंस पड़े ..बोले-"यही तो बात है रेवती जी, इंसान दुनियावी जद्दोजहद में इतना उलझ जाता है कि ऐसे सुकून के पल उसको आश्चर्य लगने लगते हैं ..जबकि इंसान सबसे ज्यादा सुकून इसी सहजता में महसूस करता है अब मुझे ही देखिये ना..आधी ज़िन्दगी बीत जाने के बाद अब लगता है जैसे ज़िन्दगी को जी रहा हूँ ..पिता का कारोबार इतना फैला हुआ था कि एम् .बी.ए करने के बाद उसी में जुड़ गया ..व्यवसायिक कुशलता में कोई कमी नहीं थी व्यवसाय दिनोदिन बढ़ोतरी पर था पर कुछ था जो मुझे खालीपन का अहसास कराता था .बचपन से गिटार बजाने का शौक पता नहीं पढाई और व्यवसाय में कहाँ छूट गया .इंसान हर काम के लिए समय निकल लेता है या यूँ कहें कि इतने कामों में उलझा लेता है खुद को कि स्वयं के लिए उसके पास समय नहीं रह जाता ..जबकि मेरा अनुभव है कि यदि हम कुछ पल अपने लिए निकाल लेते हैं तो उन पलों में संचय की गयी ऊर्जा हमें बाकी कामों को और बेहतर तरीके से करने में मदद करती है ..मन में जब बहुत उपद्रव होने लगा तो ध्यान विधियाँ अपनाई मैंने .मन शांत होना शुरू हुआ तो अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनाई देने लगी॥ खुद को ही तो खोज रहा था मैं..'स्व' की खोज में 'अहम्' व्यवधान बना हुआ था ..आगे पीछे लोगों की भीड़ झूठी तारीफें अवसरवादिता चाटुकारिता ..इन सबमें मेरा 'स्व' कहीं दब गया था जिसके कारण मुझे घुटन हो रही थी ..दिन के २४ में से २० घंटे व्यवसाय के बारे में सोचते उनको क्रियान्वित करते निकल जाते थे सामाजिक तौर पर बहुत सफल इंसान था पर खुद की नज़रों में असफल .चेतना जागृत हुई तो खुद को समेटना शुरू किया..दिन में कम से कम घंटे स्वयं के लिए निश्चित किये..जब मैं सिर्फ अपने साथ रह सकूँ..और ऊर्जा संचित होने लगी..
उस ऊर्जा का सकारात्मक उपयोग मुझे बहुत सुकून देता है .आप पैसे के मामले में कितने भी सफल क्यूँ ना हों..जब तक मानसिक शांति और संतोष नहीं है एक इंसान के रूप में आप असफल ही हैं..और वह मानसिक शांति आपको अपनी आत्मा से प्राप्त होती है..पर इंसान उसे बाहर ही खोजता है..और भटकता है॥ जैसे कस्तूरी की खोज में मृग..अपने पैशन को भुला कर कोई भी कार्य करने में इंसान कभी संतुष्ट नहीं होता ..और यदि उसका पैशन ही उसका काम बन जाए तो वो सफलता की बुलंदियों को छू लेता है..जैसे सचिन तेंदुलकर ,लता जी,हुसैन साहब ,अमिताभ बच्चन जी आदि...हम आम इंसान यही सोच लेते हैं की उनके जैसा बनना हमारी किस्मत में नहीं ..और इसी सोच के चलते हम अपने को खोजना बंद कर देते हैं॥ हर इंसान विलक्षण है..कुछ ना कुछ उसमें ऐसा ज़रूर है जो उसे पूरी दुनिया से अलग करता है बस उसी को खोजना है॥ और उसी की खोज एक अनवरत यात्रा बन जाती है..उस यात्रा में बहुत कुछ ऐसा होता है जो मन को सुकून देता है..ऐसा लगता है की ईश्वर ने हमें भेजा है इस धरती पर तो हमसे कुछ ख़ास काम की अपेक्षा है उसे॥ और उसी प्रेरणा के तहत मैं अपने मन के अनुसार जितना योगदान कर सकता हूँ .इस समाज के लिए करता हूँ ..मुझे ख़ुशी है कि कई उच्चा शिक्षा प्राप्त लोग जुड़ गए हैं 'दृष्टि' से जो निस्वार्थ भाव से अपना योगदान दे रहे हैं समाज को.ईश्वर की कृपा से पैसे की कमी कभी नहीं पड़ी हमें..और हम सफल हो रहे हैं ऐसी पौध तैयार करने में जो आगे चल कर घने छायादार वृक्ष बन सकेंगे .यही आत्मिक संतुष्टि है ..'मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल मगर ..लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया " ..यह तो ऐसी ही यात्रा है..

तभी सामने से एक महिला आती नज़र आई ॥और रजत जी ने कहा -"लीजिये, आपको अपनी श्रीमती जी से मिलवाता हूँ..ये हैं मेरी जाने तम्मना गुले गुलज़ार जाने बहार शिखा और यह सुर-कोकिला रेवती जी " शिखा खिलखिला कर हंस पड़ी ..और कहा - "ये ' वक़्त ' पिक्चर का संवाद खूब चुराया है आपने " और फिर रेवती की तरफ मुखातिब हो कर बोली -"आपसे मिल कर बहुत ख़ुशी हुई, कल रजत ने तो आपकी तारीफों के पुल बाँध दिए थे और तभी से उत्कंठा थी आपसे मिलने की "..
रेवती इस स्वागत से सम्मोहित थी..कितना अपनापन कोई नाटकीयता नहीं ..कितनी उन्मुक्तता है यहाँ हर सम्बन्ध में ..
ये सब बातें हो ही रही थी कि कार्यक्रम के संचालक की आवाज़ माइक पर गूँज गयी॥ और सबका ध्यान उधर ही चला गया ..रेवती रजत जी की बातों से अभिभूत थी ..और उनको आत्मसात करने की कोशिश में थी..कार्यक्रम के बाद रजत जी ने उसको सधन्यवाद विदा देते हुए फ़ोन नम्बर्स का आदान प्रदान किया ..और कहा -" आशा है अब आप भी हमारी सांस्कृतिक संस्था की रेगुलर सदस्य जल्द ही बनेंगी" ..रेवती बस मुस्कुरा दी॥ और घर चली आई॥

संजय घर पर ही था टी.वी देख रहा था .. रेवती का प्रफुल्लित चेहरा देख कर एक अजीब सी कचोट का एहसास हुआ उसे..और उसने उसकी उत्फुल्लता को नज़रंदाज़ करके अपना आक्रोश जता दिया॥ पर रेवती जिस ऊर्जा का संचय करके वहां से लौटी थी उसने इस बात को नोटिस नहीं करने दिया..सही बात है..जब हम स्वयं सकारात्मक ऊर्जा से भरे होते हैं तब किसी का नकारात्मक दृष्टिकोण हमें प्रभावित नहीं कर पता ..और उसके कारण होने वाला ऊर्जा का क्षय रुक जाता है॥ गुनगुनाती हुई रेवती खाने की तयारियों में जुट गयी..यन्त्रचालित सी काम कर रही थी पर उसका मस्तिष्क आज शाम होने वाली घटनाओं का पुनरावलोकन कर रहा था.रह रह कर रजत जी का व्यव्क्तित्व नज़रों के सामने घूम जाता और उनकी सहजता ..कितने खुले मन से सब बताते जा रहे थे, चंद्रप्रभा जी हों या रजतजी..ऐसा लगता है जैसे हमेशा दूसरों को राह दिखाने के लिए तत्पर रहते हैं..द्वन्द में फंसे व्यक्तियों को द्वन्द से बाहर आने का रास्ता . और शिखा जी भी कितना पारदर्शी व्यक्तित्व रखती हैं..चंद्रप्रभा जी तो अविवाहित हैं पर शिखा जी विवाह के बन्धनों में जैसे जकड़ी हुई महसूस ही नहीं होती ..पर वह खुशकिस्मत हैं कि उनको रजत जी जैसे पति मिले हैं ..इन्ही सब सोचों में डूबे कब खाना बन गया पता ही नहीं चला
खाने की टेबल सजा कर उसने संजय को बुलाया ॥संजय का खिंचा हुआ चेहरा थोड़ी देर के लिए उसे सहमा गया पर जल्द ही उससे उबर कर वह उससे एक महीने के कार्यक्रम के बारे में पूछने लगी..रेवती ने कहा -"माँ पिता जी आपके आने की बाट जोह रहे हैं..उनसे मिले हुए कितने दिन हो गए ..कब चलेंगे उनसे मिलने ?'
संजय के माता पिता ऋषिकेश में स्वर्गाश्रम के नजदीक बने फ्लैट्स में रहते थे ..उनका जीवन वहां बहुत आन्नद पूर्वक बीत रहा था ..प्रकृति का साथ ..गंगा का किनारा स्वच्छ निर्मल जलवायु.. संजय के पिता को लेखन का शौक था अक्सर उनकी आध्यात्मिकता पर लिखी रचनायें 'अखंड ज्योति " या 'साधना पथ' जैसी पत्रिकाओं में छपती रहती थी .रेवती को उनका साथ और ऋषिकेश की जलवायु बहुत पसंद थी ..उसने संजय को कह कर १० दिन के लिए ऋषिकेश जाने का कार्यक्रम बना लिया.. अगले शनिवार इतवार स्नेहा जायेगी तब तक हम लौट आयेंगे ..
बातों का विषय दूसरी तरफ मुड जाने से संजय की तनी हुई मुखमुद्रा कुछ सहज हुई..और रेवती ने भी राहत की सांस ली ..
अगले दिन दोनों ऋषिकेश के लिए निकल पड़े..वहां के प्राकृतिक वातावरण में रेवती को बहुत सुकून मिला..मनप्राण जैसे निर्मल हो उठे ..गंगा किनारे बैठ कर सुबह शाम वह सुरों का अभ्यास करती रहती ..और खुद को खुद के और नज़दीक पाती..एक अनजानी ऊर्जा से भरती जा रही थी वह॥ उसे अब संजय के कटाक्ष भी कम आहत करने लगे थे हर समय मुस्कराहट खिली रहती उसके मन पर ऐसा लगता था .बीच बीच में चंद्रप्रभा जी से और रजत जी से बात हो जाया करती थी फ़ोन पर..उन्होंने उसको सूचना दी थी कि महीने के आखिरी शनिवार को एक गेट टुगेदर का आयोजन किया है जिसमें कई साहित्यिक और सांस्कृतिक कलाकार शामिल होंगे ..रेवती को सबसे मिलने का मौका मिलेगा इसलिए वह उसमें आने का कार्यक्रम ज़रूर बना ले ..रेवती ने सब कुछ समय पर छोड़ दिया था .रजत जी से जितना वह बात करती थी उतना ही उनकी तरफ खिंचाव महसूस करती थी और फिर खुद को ही लानत मलानत करती थी..पर उसके हृदय पर जैसे उसका काबू नहीं रह गया था ..सोचों में हर समय रजत जी का रहना और उनके फ़ोन का इंतज़ार करना उसकी दिनचर्या का हिस्सा बन गया था ..
अगला हफ्ता स्नेहा के साथ कैसे बीत गया पता ही नहीं चला १८ साल पार कर चुकी स्नेहा अभी भी रेवती के सामने बच्ची बन जाती थी ॥हाँ इस बार उसकी चुहल थोडा अलग किस्म की थी..जैसे ही घर में घुसी रेवती को देखते ही बोली-वाओ!!! माम..क्या बात है॥ यू आर लुकिंग यंग !! ग्लोइंग फेस ..स्पार्कलिंग आईस ..फीलिंग टु फाल इन लव विद यू !!!
रेवती ने हँसते हुए उसे गले से लगा लिया और कहा -शैतान कहीं की..मजाक करना सीख गयी है माँ से ॥!!"
स्नेहा ने कहा-" नहीं माम ..आई एम् सीरियस .."
रेवती ने कहा -"अच्छा आराम से बात करेंगे. आते ही शुरू हो गयी पागल .."

और फुर्सत मिलते ही रेवती ने अपने सिरे पर हुए डेवलपमेंट्स बताये और बताया कि वह इस फेज़ को बहुत एन्जॉय कर रही है..स्नेहा बहुत खुश हुई ..चंद्रप्रभा जी और रजत जी जैसे दोस्त बना कर माँ बहुत खुश है यह उसे सुकून दे गया ..रेवती ने उसे गेट टुगेदर में साथ चलने को कहा और वह भी बहुत उत्सुक थी उन दोनों से मिलने केलिए ..

शनिवार की शाम तीनो ही उस गेट टुगेदर में साथ चले रेवती खुश थी कि संजय अपने मन से उसके साथ चल रहा है..हालाँकि संजय का शौक नहीं था उन सब विधाओं में ..पर वह भी उत्सुक था जानने के लिए कि कैसे लोगों से रेवती मिलती जुलती है ..एक कम्युनिटी सेंटर के खूबसूरत लान में छोटे छोटे वृतों में कुर्सियां लगा रखी थी..और सब अपने अपने ग्रुप बना कर चर्चाएं कर रहे थे .बड़ा बेतकल्लुफी वाला माहौल था ..खुशनुमा लोग खुशनुमा माहौल कोई लीपा पोती नहीं कोई नाटकीयता नहीं..हवाओं में भी जैसे हंसी के स्पंदन तैर रहे थे ..स्नेहा तो बहुत ही प्रभावित हुई ,संजय भी अछूता नहीं रह पाया उस प्राकृतिक माहौल से थोड़ी देर में वह भी सहज महसूस करने लगा ..चंद्रप्रभा जी और रजत जी ने संजय और स्नेहा का बहुत ही गर्मजोशी से स्वागत किया ..पूरी शाम आनंदमयरही और भिन्न भिन्न विषय पर चर्चाएं होती रही..जिस ग्रुप में चंद्रप्रभा जी रेवती, शिखा ,संजय, रजत जी थे उसमें विवाह और स्त्री पुरुष संबंधों पर विमर्श चल निकला..संजय और रेवती हतप्रभ से सभी लोगों के विचार सुन रहे थे..जिन विषयों पर बोलना सभ्य समाज में शालीन नहीं समझा जाता उस पर वहां कितनी उन्मुक्तता से विचारविमर्श किया जा रहा है ..रेवती को चुप देख कर शिखा ने उसे कहा-" तुम भी तो कुछ कहो क्या सोचती हो समाज में नारी की स्थिति के बारे में ?".रेवती तो जैसे हकला सी गयी..क्या कहे वह..बातों का सूत्र पकड़ा रजत ने ..और उसने कहा-'यह विषय हमेशा से डिबेट का विषय रहा है..नारी जाति का शोषण इतना पुराना हो गया है कि नारी स्वयं अपनी पहचान खोती जा रही है ..इस सन्दर्भ में मैं यशपाल जी की किताब 'चक्कर क्लब' में लिखा हुआ ये अंश उद्धृत करना चाहूँगा - "भारत में क्या होता था सो हमें भी मालूम है. हिन्दुओं कि स्मृतियों में लिखा है, "स्त्री शूद्र नाधीयताम" अर्थात स्त्री और शूद्र को पढ़ाना नहीं चाहिए. वज़ह, स्त्री और शूद्र को पढ़ाया जायेगा तो वह सेवा के काम में नहीं रहेंगे, दलील करने लगेंगे. बैल को आप बाजीगरी का खेल सिखाईये तो वह हल थोड़ा ही जोतेगा॥कहेगा, मैं अपनी इच्छा से काम करूँगा और मालिक की बराबरी का दावा करेगा।"
इतना सुन कर सब हंस पड़े..स्त्री कि बराबरी बैल से..और चर्चा चल पड़ी नारी भावनाओं की..उसके शारीरिक और भावनात्मक समन्वय की..रेवती यह देख कर हैरान थी कि स्नेहा इस विमर्श में खुले मन से हिस्सा ले रही थी ..और उसके विचार जान रेवती को ख़ुशी थी कि उसने अपने मन को प्रतिबंधित नहीं किया है ही उसके मन में किसी भी बात का कोई टैबू है..जैसा कि रेवती के मन में हुआ करता था ..ग्रंथियां नहीं हैं ..ओशो , अमृता प्रीतम ,मंटो, इस्मत जैसे कितने ही साहित्यकारों कि चर्चाएं हुई.शिखा ने कहा -यह कन्यादान की परंपरा भी यही बताती है की स्त्री को एक जीता जगता इंसान नहीं एक वस्तु समझा जाता रहा है ..दान तो किसी वस्तु का ही होता है ना
. जिस वस्तु का दान किया जा सकता है, उसकी इच्छा या अनिच्छा का, उसकी स्वतंत्रता का प्रश्न ही नहीं उठ सकता. स्वयंवर किया जाता होगा परन्तु वह स्त्री को स्वतंत्रता देने के लिए नहीं, बल्कि इसलिए कि वीर पुरुष आपस में औरत के लिए झगडे नहीं. स्वयंवर के मैदान में औरत को कौड़ी की तरह उछाल फेंका, जिस के भाग्य में जा पड़ी उसकी किस्मत ! उसमें लड़ने झगड़ने कि कोई बात नहीं." चंद्रप्रभा जी ने कहा-हाल ही में अमृता जी का एक लेख पढ़ा "कड़ी धूप का सफ़र" ..उन्होंने नारी जाति की वर्तमान स्थिति किस तरह घटित हुई होगी उस पर चर्चा की है .एक समय था जब नारी को शक्ति का स्वरुप माना जाता था ..पुरुष और नारी का अपना अपना वजूद मिल कर दोनों को पूर्ण करता है..फिर वक़्त आया जब अर्धनारीश्वर का फलसफा खो गया...और दासता पैदा हुई. शिव शक्ति जैसा चिंतन खो गया तो जड़ता पैदा हुई. शक्ति खो गयी--तो उसके प्रतिक्रम में खौफ पैदा हुआ. धर्म खो गया तो उसके प्रतिक्रम में मज़हब पैदा हुआ. आत्मा खो गयी---तो शरीर एक वस्तु बन गया बेचने और खरीदने कि वस्तु ॥ "
चर्चाएं गरम हो उठी थी..सबके अपने अपने वर्सन ..

रेवती ने इन सबको पढ़ा नहीं था पर चर्चा का विषय देख उसने इन सबको पढने का मन बना लिया ..वहां के खुले वातावरण में रेवती का मन जैसे खुल गया था॥ शालीनता और हिपोक्रेसी का फरक उसे साफ़ समझ रहा था॥ सहज स्वाभाविक जीवन से जुडी बातों को असभ्य कह कर हम कौन सी शालीनता का परिचय दे रहे होते हैं ? और स्वाभाविकता का दमन विकारों को जन्म देता है ग्रंथियां बन जाती हैं..वह भी क्या अपनी भावनाओ का दमन नहीं कर रही ..??
इन्ही सब सोच विचार में डूबती उतरती वह घर को लौट आई..अंतर्मन में जैसे हलचल मच गयी थी॥ अपने अन्दर छुपी नारी को जानने की तीव्र उत्कंठा ..शायद इसी एहसास की बात रजत जी कर रहे थे '' स्व " की खोज ..
और उसने रजत जी और चंद्रप्रभा जी के सहयोग से वह सारा साहित्य पढ़ डाला जो उसकी सोचों को दृढ़ता प्रदान कर सकता था ..ख़ास तौर पर ओशो साहित्य। .ओशो को उसने हमेशा दुनिया की नज़रों से जाना था॥ एक विद्रोही के रूप में॥ पर अब उनको पढ़ कर जाना की वह आत्मिक चेतना जागृत हुए इंसान का जीता जगता उदहारण थे और उन्होंने अपने संदेशों में यही आवाहन किया है ..स्नेहा से भी उसके विमर्श होते रहते और अपनी समझ और अनुभव के बल पर उसने स्नेहा को भी एक दृढ सोच का आधार दिया..
(क्रमश:)
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Monday, March 29, 2010

है तुझे भी इजाज़त...(पांचवी किस्त )

खाना खा कर संजय तो सोने चला गया .रेवती रसोई समेट ही रही थी कि चंद्रप्रभा जी का कॉल आया.उन्होंने उसकोअखबार में फोटो छपने की बधाई दी और कहा कि आज शाम एक छोटा सा सांस्कृतिक कार्यक्रम है विकलांग बच्चोंके लिए चल रहे एक चेरिटेबल ट्रस्ट के सौजन्य से..तुमको वहां गाना गाना है..रेवती ने असमर्थता जता दी..चंद्रप्रभाजी ने पूछा -"क्यूँ क्या हुआ? "
रेवती ने कहा -"संजय आये हुए हैं और मैं नहीं पाउंगी "..
चंद्रप्रभा जी ने खुश हो कर कहा -"अरे यह तो बड़ी अच्छी बात है..उनको भी साथ ले कर आना" ...
रेवती ने कहा -"उनको शौक नहीं है इन सबका.."
चंद्रप्रभा जी ने कहा -"वह ना आना चाहे अलग बात है पर तुम क्यूँ नहीं आओगी? "
रेवती इस पर चुप रह गयी ..समझ नहीं पाई की क्या जवाब दे.. चंद्रप्रभा जी अविवाहित महिला हैं.स्वतंत्र हैं .वहक्या जाने एक विवाहिता की मजबूरियां .चंद्रप्रभा जी ने फिर पूछा तो रेवती ने कहा -"बस ऐसे ही संजय को पसंदनहीं"..
चंद्रप्रभा दो क्षण को मौन हो गयी फिर उन्होंने कहा अच्छा अभी मैं तुम्हारे घर की तरफ से ही गुज़र रही हूँ.. तुम फ्रीहो तो मिलती चलूँ..रेवती ने हुलस कर उनका स्वागत किया..कहा -"बिलकुल ,आइये ना आपका ही घर है..".
चंद्रप्रभा ने कहा -"ठीक ..मैं १० मिनट में पहुँचती हूँ तुम्हारे घर ".
रेवती को तो यकीन नहीं हो रहा था .इतनी मशहूर महिला सिर्फ एक दिन की मुलाकात के बाद उससे मिलने उसकेघर रही है.. जल्दी जल्दी
उसने ड्राइंगरूम ठीक किया खुद पर एक नज़र डाली अव्यवस्थित बालों को सही कियाऔर उनके इंतज़ार में बैठ गयी..
करीब १५ मिनट बाद बेल बजी..रेवती ने दरवाज़ा खोला और मुस्कुराती हुई चंद्रप्रभा जी घर में दाखिल हुई..सबसेपहले उन्होंने रेवती को भरपूर नज़र से देखा और कहा -"बड़ी प्यारी लग रही हो इस चंदेरी में.." रेवती सकुचागयी..यूँ सामने सामने प्रशंसा पाने की वो आदी नहीं थी पर मन को बहुत अच्छा लगा ..चंद्रप्रभा जी ने आगे कहा -" तुमको पारंपरिक साड़ी पसंद हैं ना.कल भी ढाकाई साड़ी पहनी थी " रेवती ने कहा -"जी "..मन में सोचा उसनेअदभुत है ये महिला..क्या ओब्सर्वेशन पॉवर है..मुझे तो याद भी नहीं की कल इन्होने क्या पहना था ".रेवतीचंद्रप्रभा जी के लिए निम्बू पानी बना कर ले आई और उसके बाद उन्होंने कहा की अब आराम से बैठो ..बहुत सीबातें करनी हैं तुमसे ..
रेवती असमंजस की स्थिति में बैठ गयी उनके साथ के सोफे पर .चंद्रप्रभा जी ने उससे उसके जीवन सम्बंधित प्रश्नपूछने शुरू किये.. कब शादी हुई..कब बेटी हुई.. कैसा अनुभव रहा शादी के बाद और कुछ बाद के सालों का..रेवतीसम्मोहित सी हो कर सब बताती चली गयी.. जिन बातों को अब तक वो व्यक्तिगत समझ कहीं ज़िक्र भी नहीं करतीथी वह सब उसने दिल खोल कर चंद्रप्रभा जी से कह डाला..गज़ब की कशिश थी उनके व्यक्तित्व में..और एक सुरक्षाका एहसास भी..जैसे कोई घने पेड़ की छाँव तले बैठा हो..चंद्रप्रभा जी पूरे ध्यान से सुनती रही चेहरे की मुस्कराहटज्यों की त्यों बनी रही.. और रेवती के मन के कपाटो का खुलना महसूस करती रही..
रेवती जब सब कुछ उंडेल चुकी यहाँ तक की संजय का आज का व्यवहार और उससे आहत उसका मन भी तबउन्होंने उसकी तरफ पानी का ग्लास बढाया .और कहा-"संजय को तुमने कभी बताया की तुम गाने का शौक रखतीहो? ".रेवती चुप..अपलक प्रभा जी को देखती रही..वह आगे बोली-देखो रेवती,भारतीय पारंपरिक विवाह की यहबहुत बड़ी विडम्बना है की इसमें दो आत्माओं का बंधन माने जाने वाले विवाह से दो आत्माएं बंधक हो जाती हैं .दोइंसान जो एक दूसरे के सत्व से अछूते होते हैं साथ रहने को बाध्य कर दिए जाते हैं समाज के द्वारा .और उनकी पूरीज़िन्दगी एक दूसरे के हिसाब से खुद को ढालने में निकल जाती है.इंसान खुद को जान नहीं पाता और दूसरे कीइच्छानुसार बनने की कोशिश करता रहता है.परन्तु दुनिया के हिसाब से ढल जाने वाले कभी भी अपने लिए एकखुशनुमा ज़िन्दगी नहीं जी पाते .हमारे समाज में विवाह के लिए सबसे पहले खानदान देखा जाता है फिर स्तरउसके बाद लड़के/लड़की की शैक्ष्णिक योग्यता .और सब कुछ ठीक रहा तो परिवार वालों की उपस्थिति में कुछबातें करने का मौका दिया जाना हमारे समय की आधुनिकता थी..आज की पीढ़ी कम से कम इस दिशा मेंसकारात्मक दृष्टिकोण अपना रही है..पर सही दिशानिर्देशन के अभाव में उनसे भी गलतियाँ हो जाती हैं."
रेवती हतप्रभ सी चंद्रप्रभा जी को बोलते सुन रही थी..और उसे सुकून महसूस हो रहा था क्युंकि जो सोचें अभी तकउसको उद्वेलित करती थी उन्ही को आज कोई शब्द दे रहा था
चंद्रप्रभा जी आगे बोली-"विवाह के बाद कुछ समय नए रिश्ते के उत्साह में निकल जाता है..फिर एक मोह का बंधनजुड़ने लगता है ...और स्वयं को पीछे छोड़ साथी की इच्छा के आगे समर्पित हो जाना विवाह की नियति मान लीजाती है..खासकर यह अपेक्षा नारी से ज्यादा होती है क्युंकि वही सहनशीलता की मूरत मानी जाती है..पर कईजगह नारी प्रभुत्व जमाती हो जाती है और पति निभाने कि कोशिश कर रहे होते हैं..मूल रूप से विवाह संस्थाआत्माओं का देवीय मिलन ना हो कर समझौतों का घर संसार बन जाता है..और जहाँ समझौते काम नहीं आते वहांतलाक की नौबत जाती है..तथाकथित सुखद वैवाहिक जीवन जीने वालों के अन्दर कितनी घुटन होती है यहतुम खुद महसूस कर चुकी हो..वह घुटन विवाह के कारण नहीं है..वह घुटन तुम्हारी अपनी उपज है.तुमने अपनीज़िन्दगी को इस तरह जिया है की तुम्हें घुटन महसूस होने लगी है..तुम्हारी आत्मा तड़प रही है अपनी पहचान केलिए..सबसे पहले तो उसे तुम्हें ही पहचानना होगा..तुम जब अपने साथ होती हो तो कितना खुश महसूस करती हो.. कल शाम की रेवती और आज की रेवती में ज़मीन आसमान का अंतर दिख रहा है मुझे ..पर यह अंतर तुमने खुदअपने मन में बोया है..परिस्थितियों को दोष दे कर खुद को निरीह बना लेना एक कमजोर इंसान की पहचानहै..ज़िन्दगी खुश रह कर बितानी है या दुखी रह कर यह इंसान के स्वयं के ऊपर निर्भर करता है।तुमने अपने मन मेंयह सोच लिया की संजय पसंद नहीं करेंगे या संजय के व्यवहार को देख कर तुमने निर्णय ले लिया कि तुम गानानहीं गाओगी . तुम्हारी आत्मा को जो कष्ट हुआ उसे तुम कैसे अनदेखा कर सकती हो॥जब तक तुम अपने कोपहचान कर अपने लिए सम्मान नहीं पैदा करोगी अपने मन में कोई दूसरा कैसे तुम्हारा सम्मान करेगा ...रहीसंजय के व्यवहार की बात तो यह भारतीय पुरुषों की बरसों की कंडिशनिंग का नतीजा है..स्वामित्व की चाह मेंउन्होंने पत्नियों को हमेशा ऐसे ट्रीट किया है कि वह अपने को दोयम दर्जे का ही समझ कर रहे तारीफ करना हमेशायूँही समझा है कि इससे उनके दिमाग ख़राब हो जाते हैं..भावनाएं ज़ाहिर करना भी पुरुषत्व की निशानी नहींसमझा जाता ..यदि कोई पुरुष अपनी भावनाएं ज़ाहिर करता भी है तो दुनिया उसे छिछोरा कहती है.. और इन सबसे बचने के लिए भावनाओं के होते हुए भी कई बार उनको तालों में बंद रखा जाता है.. संजय ने एक जिम्मेदार पतिऔर पिता का कर्त्तव्य निभाया है..पर वो जिम्मेदारी सामाजिक है..भावनात्मक जिम्मेदारी वह समझ ही नहीं पायाक्युंकि उसने कभी जाना नहीं इसका महत्व..उसके लिए भावनाएं जाहिर करना चोंचलेबाजी है ..तुम दुखी इसलिएहो जाती हो क्युंकि तुम्हें लगता है तुम्हारी कोमल भावनाएं आहत होती हैं.. तुम अपेक्षा करना छोड़ कर सहज रूपसे उसके साथ व्यवहार करो ।देखना उसकी खिन्नता और तीक्ष्नता कम होने लगेगी..पर सबसे ज़रूरी है अपनीआत्मा का विकास.."स्वार्थी"हो जाना पड़ता है ..इस शब्द का अर्थ भी शब्दकोष में दिया है..अपना मतलब साधनेवाला..परन्तु मैं इसका अर्थ लेती हूँ"स्व का अर्थ जिसने जान लिया वह स्वार्थी ".

-" , रेवती का मन अब काफी शांत था .उसने मुस्कुराते हुए चंद्रप्रभा जी से पूछा.-"आप अविवाहित होते हुए भी विवाहकी समस्याओं और पुरुष की भावनाओ को इतने अच्छे से कैसे समझती हैं ?"
चंद्रप्रभा जी मुस्कुरा उठी ,बोली-"भावनाओं को समझने के लिए विवाह की नहीं हृदय की ज़रुरत होती है,औरअविवाहित रहने का ये मतलब नहीं की मेरी ज़िन्दगी में कभी कोई पुरुष रहा ही नहीं ,विवाह तो एक सामाजिकव्यवस्था है वरना बिना कसमों और रस्मों के दो व्यक्तियों में कहीं ज्याद दृढ बंधन जुड़ सकता है .खैर इन सब बातोंको छोडो और अब शाम के कार्यक्रम पर पुन: विचार करो..अपनी अंतरात्मा से पूछो वह क्या चाहती है..और जिसकार्य को करने में किसी का अहित ना हो उसे करने से हिचको मत..किसी का आहत होना या पसंद ना करना उसकीअपनी मानसिकता कि निशानी है अपने अस्तित्व को मार कर तुम किसी का भी भला नहीं करोगी " ..

रेवती अपने मन के उदगार उड़ेलने के बाद बहुत हल्का महसूस कर रही थी . वह शाम के कार्यक्रम में गाने का मनबना चुकी थी कि संजय भी अपनी नींद पूरी करके ड्राइंगरूम में चला आया ..रेवती ने उसका चंद्रप्रभा जी से परिचयकराया..और शाम के कार्यक्रम के बारे में बताया ..संजय ने शुष्क भाव से कंधे
उचकाते हुए कहा -"देख लो जैसातुम्हें ठीक लगे ..तुम तो स्वनिर्णय लेने में सक्षम हो .मेरे पीछे कौन सा हर काम मुझसे पूछ कर करती हो.."
रेवती की आँखें फिर भीगने को तैयार हुई की चंद्रप्रभा जी ने आँखों आँखों में उसे शांत रहने को कहा .. और उठते हुएबोली -"तब ठीक है रेवती..मैं ठीक बजे गाड़ी भेज दूँगी तुम तैयार रहना ." फिर संजय की ओर मुखातिब हो करबोली -"आप भी आइयेगा साथ में ..हमें ख़ुशी होगी आपकी उपस्थिति से".

और नमस्कार करके वह रेवती से विदा ले कर चली गयी..रेवती जब उनको छोड़ कर घर में आई तो संजयअनमना सा बैठा था..रेवती चुपचाप चाय बनाने चली गयी..संजय सोच नहीं पा रहा था की रेवती को मना करे या नाकरे..रेवती ने भी तो कभी उसके मामलों में हस्तक्षेप नहीं किया ..और अब अगर वो अपनी ख़ुशी के लिए कुछकरना चाहती है तो वह क्यूँ उबल रहा है ..शायद कहीं उसके अहम् को चोट लगी है..कि उसको नहीं पता था किउसकी पत्नी गाना गाती है..कभी जानने की कोशिश ही नहीं की उसने रेवती को व्यक्तिगत रूप से.. उसने उसे बसएक पत्नी एक माँ और उसका घर सँभालने वाली ही समझा..कभी उसके एक व्यक्तिक रूप को क्यूँ नहीं देखा ..ऐसाक्यूँ होता है की शादी के बाद एक लड़की के सारे गुण छुप जाते हैं ..और उस पर अपेक्षाओं का बोझ डालकर उन परखरा उतरने की उम्मीद की जाती है.. शायद पहली बार संजय अपने रिश्ते के इस पहलू को देख रहा था औरसमझने की कोशिश कर रहा था ..
(क्रमश:)