Sunday, March 28, 2010

है तुझे भी इजाज़त....(तीसरी किस्त )


संगीत संध्या के कार्यक्रम में सिर्फ ४ दिन बचे थे जब संजय का फ़ोन आया कि वो भारत आ रहा है एक महीने की छुट्टी पर ॥और इतेफाक से उसके आने की तारीख वही थी जिस दिन रेवती का संगीत कार्यक्रम था ..सुबह की फ्लाईट से दिल्ली आ कर शाम तक वो पहुँच जाएगा रूडकी ..सुनते ही रेवती को सबसे पहला खयाल अपने संगीत कार्यक्रम का हो आया ..अब क्या होगा..उसी दिन शाम को संजय आयेंगे तो वो कैसे जा पाएगी और संजय को तो उसके बारे में कुछ पता भी नहीं है कि वो यह सब शौक रखती है ..मन दुविधा में फँस गया.. संजय ये बात पसंद नहीं करेंगे कि उनके आने पर वो घर पर नहीं है..इसी उधेड़बुन में २ दिन निकल गए ..रियाज़ भी बंद हो गया ..हर समय सोचों में घिरी रहती ..मन को जैसे किसी ने पिंजड़े में बंद कर दिया हो और वह छटपटा रहा हो बाहर निकलने के लिए ..स्वयं की पहचान की राह में एक पत्नी की पहचान बाधाएं उत्पन्न कर रही थी .एक मन होता की संजय को बता दे फिर लगता कि उनकी प्रतिक्रिया अगर एक दम नकारात्मक आई तो ..इन्ही सब सोचों में डूबी थी कि स्नेहा का फ़ोन बजा .उधर से चहकती हुई आवाज़ सुन कर मन पर जैसे ठंडी फुहारें पड़ गयी ..पर माँ की उदास आवाज़ स्नेहा से छुप नहीं सकी..उसके पूछने पर रेवती ने अपनी उधेड़बुन स्नेहा को बता दी..उसने कहा वह इस कार्यक्रम में शिरकत करना चाहती है पर डरती है कि संजय को कह देने के बाद उसने मना कर दिया तो वह बिलकुल ही नहीं जा पाएगी और बिना बताये जाने में संजय के आने पर घर पर नहीं रह पाएगी ..स्नेहा थोड़ी देर सोचती रही ..और फिर उसने कहा कि मैं पापा को दिल्ली रोक लेती हूँ मेरे साथ समय बिताने के लिए और वह रूडकी अगले दिन चले जायेंगे ..सांप भी मर जाएगा और लाठी भी नहीं टूटेगी ..रेवती को भी ये आइडिया पसंद आ गया ..और स्नेहा ने संजय को फ़ोन मिला कर कहा "पापा,माँ से पता चला की आप ६ तारीख को दिल्ली आ रहे हो.. शनिवार है ना उस दिन..मैं फ्री होती हूँ..उस दिन आप यही रुक जाओ ना कब से आपके साथ तसल्ली से मिलना नहीं हो पाया है..सोमवार से मेरे टेस्ट हैं वरना मैं रूडकी चलती ..और हम तीनो साथ समय बिताते..पर अब आप एक शाम तो मेरे साथ बिता ही सकते हो..रूडकी आप इतवार को चले जाना "..संजय भौंचक सा सुनता रहा ..बेटी की ओर से ये आग्रह !!!!.. पर उसे भी अच्छा लगा ये सोचना कि वो स्नेहा के साथ समय बिताएगा .. ज़िन्दगी में भागते भागते शायद वो भी अब अपने बसेरे को मिस करने लगा था तो उसने हामी भर दी ..स्नेहा ने रेवती को खबर कर दी और रेवती के मन से धुंध हट गयी और वो उसी ग़ज़ल को गुनगुनाते हुए काम में जुट गयी जिसे उसने चुना था संगीत संध्या में गाने के लिए ..."रंजिश ही सही ..दिल ही दुखाने के लिए आ ..आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ " ..
शनिवार की शाम रेवती अपनी मनपसंद ढाकाई साड़ी में गरिमापूर्व व्यक्तित्व के साथ निश्चित स्थान पर पहुँच गयी..बहुत बड़ा आयोजन था देख कर रेवती को घबराहट होने लगी.. स्कूल कॉलेज में हुए फंक्शन्स में उसने स्टेज पर गाया था पर अब २० साल के बाद इतने बड़े जनसमूह के सामने गाने में उसे पसीने छूटने लगे ..स्नेहा की कमी उसे खलने लगी.. काश वह साथ होती ..कांपते कदमो से उसने प्रबंधकों को जा कर अपना परिचय दिया ..प्रबंधकों ने उसकी मुलाकात सुश्री चंद्रप्रभा जी से करवाई..रेवती ने उनका नाम काफी सुन रखा था स्थानीय समाचार पत्रों में उनका नाम प्राय: तीसरे दिन किसी ना किसी कार्यक्रम के सम्बन्ध में आता ही रहता था ..कभी कभी उनकी लिखी कहानिया और कवितायेँ भी रविवासरीय परिशिष्ट में उसने पढ़ी थी .उनको अपने सामने देख वह अभिभूत हो उठी और उनके व्यक्तित्व से बेहद प्रभावित..स्नेह से ओतप्रोत उनका चेहरा उसकी सारी घबराहट को दूर कर गया.. चंद्रप्रभा जी ने उससे परिचय का आदान प्रदान किया और उसको उस दिन कार्यक्रम प्रस्तुत करने वाले बाकी कलाकारों से मिलवाया ..१०-१५ मिनट में ही रेवती खुद को वहां का हिस्सा समझने लगी थी..
रेवती का नंबर जब तक आया तब तक उसकी सारी घबराहट आत्मविश्वास में बदल चुकी थी और उसने अपनी पूर्ण क्षमता के साथ ग़ज़ल प्रस्तुत करी..ग़ज़ल के शब्दों में जैसे उसके दिल का दर्द उतर आया था " आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ ..." सभी श्रोता उसके गायन में इतना डूब गए की हर किसी की आँखें नम थी ..
चंद्रप्रभा जी ने तो स्टेज से उतरते ही उसे गले से लगा लिया और कहा " कहाँ छुपी थी अब तक तुम ? ॥इतनी मीठी आवाज़ से अभी तक सुरों की दुनिया के प्रशंसकों को महरूम रखा ..." रेवती सकुचा गयी उसने तो कभी सोचा ही नहीं था की इतनी प्रशंसा की हक़दार है वह ...

(क्रमश:)

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