Friday, March 26, 2010

है तुझे भी इजाज़त..(प्रथम किस्त)

शहनाई की धीमी पड़ती आवाज़ को पीछे छोड़ती हुई रेवती, थके क़दमों से ड्राइंग रूम में सोफे पर कर निढाल सी पड़ गयी.. शादी की भागदौड़ में पिछले एक महीने की व्यस्तता की थकन मानो आज ही उसके पोर पोर में समा गयी थी ..स्नेहा के विदा होते ही जैसे एक विराट शून्य सा भर गया उसकी ज़िन्दगी में ..उसके विदा होने से पहले यत्न से रोके गए आंसू अब उसका कहा नहीं मान रहे थे.. और पलकों की सीमाएं तोड़ कर बह निकले थे...पर बहते आँसुओं में एक सुकून का एहसास था ..बेटी से जुदा होने के ग़म के साथ साथ उसको एक खुशहाल और सुदृढ़ ज़िन्दगी देने का सुकून और मुंदती पलकों के साथ रेवती अतीत में खो गयी ...

उसकी
पढाई पूरी होते ना होते माता पिता की पसंद संजय उसको पसंद कर गए थे ..उसको ये जानने समझने का मौका भी नहीं मिला कि उसकी पसंद क्या है..अच्छा खानदान ,पक्की नौकरी करते संजय,रेपुटेड यूनिवर्सिटी से हासिल ऍम.बी. की डिग्री, एक विवाह योग्य लड़की के लिए इससे ज्यादा और क्या देखना होता है सम्बन्ध जोड़ते समय ? तो सम्बन्ध जुड़ गया.. परिवारों में पहले व्यक्तियों में बाद में और जुड़ा भी या नहीं कहा नहीं जा सकता संजय सहृदय इंसान थे पर बहुत व्यावहारिक भी और रेवती भावुक..कहीं कोई कोना रिक्त रह गया मन का .. पर नए जीवन की शुरुआत में उसका ध्यान नहीं गया ..व्यवहारिक विवाह के मापदंडों पर उनका विवाह १०० प्रतिशत खरा उतरता था ..कोई कमी दृष्टिगोचर हो तो वो किसी से कहे भी पर मन का उल्लास जैसे उमगने से पहले ही रेत पर पड़ी पानी की बूंदों की भांति मन में ही रह जाता था ..एक आदर्श पत्नी,बहु,भाभी सभी के मापदंडों पर खरी उतरती रेवती खुद को कहीं भूलती जा रही थी .. संजय और उसके विवाह के वर्ष के पश्चात् स्नेहा का जन्म हुआ था .रुई के फाहे सी सफ़ेद गोलमटोल नेही को बाँहों में ले कर रेवती पूर्ण हो उठी थी ..हर पल उसकी निगाह टिकी रहती नेही पर ..उसका सोते में मुस्कुराना उसका आँखें खोल इधर उधर देखना..उसका सबसे पहले नज़रें मिलने पर मुस्कुरा कर पहचान होने का सन्देश देना..कोई भी क्षण वो अनदेखा नहीं छोड़ना चाहती थी.. नेही ने कब खुद पलटना शुरू किया कब बैठना, कब खुद खड़े होना ,कब अन्न का पहला दाना खाया , कब उसने ग्लास से दूध पियाया कब उसने पहला शब्द बोला..सब क्षण रेवती ने क़ैद कर लिए थे डायरी में..इन नन्हे क्षणों को संजय से बांटना चाहती थी पर संजय अपनी दुनिया में मशगूल शुष्कता से कह देते थे की बड़ी होगी तो सब कुछ सीखेगी ही इतना नया क्या है इसमें ..धीरे धीरे रेवती की दुनिया जैसे स्नेहा के इर्द गिर्द सिमट गयी थी उसकी चुलबुली शरारतें उसकी तोतली भाषा में कविता सुनाना ..रेवती तो सौ सौ जान निहाल हो जाती उस पर.. बुद्धि की तेज़ स्नेहा वर्ष की उम्र में ही सैकड़ों कवितायेँ सुना देती थी..और रेवती की महत्वाकांक्षा जुड़ गयी स्नेहा से..उसको स्कूल में भरती करने के साथ ही उसको प्रथम स्थान पर देखने की महत्वाकांक्षा ..स्नेहा ने भी उसे निराश नहीं किया परन्तु आज रेवती को खुद से ग्लानि होती है..क्यूँ डाल दिया था उसने नन्ही सी जान पर अपनी महत्वकांक्षाओं का बोझ..रेवती को अच्छी तरह याद है जब प्रथम कक्षा में भारत के प्रथम राष्ट्रपति का नाम स्नेहा पंडित जवाहरलाल नेहरू लिख कर आई थी तो कितना झिड़का था उसने बेचारी को..मासूम स्नेहा निशब्द देखती रह गयी थी माँ को.. ४९ मार्क्स का जो पेपर वो सही करके आई थी उसके लिए माँ ने उसकी प्रशंसा नहीं की अपितु मार्क के लिए लानत मलानत कर रही है..स्नेहा के चेहरे के वो खिसियाये हुए भाव रेवती की आँखों में आज भी ताज़ा हैं..क्यूँ माँ बाप बच्चों को इतना बाँध देते हैं मार्क्स लाने के लिए ..संजय घर की दुनिया से बेपरवाह रहते थे..ऑफिस में उनका रुतबा, दिन पर दिन प्रोन्नति उनको रेवती और स्नेहा से काटती जा रही थी ..स्नेहा की बालसुलभ हरकतें संजय को परेशान कर जाती और वो झिड़क बैठते थे उसे ..और मासूम नेही सहम जाती थी ..पिता के घर में रहते हुए किताबों में घुसी रहती वहीं माँ के सामने चंचल बातूनी गुडिया बन जाती कैरियर को ऊंचाइयों तक पहुँचाने का जूनून संजय को बाहर देशों में नौकरी ढूँढने को प्रेरित करता था जबकि रेवती संतुष्ट प्रवृति की महिला थी पैसे से ज्यादा मन की शांति और परिवार की ख़ुशी उसके लिए अहमियत रखती थी ..धीरे धीरे संजय और रेवती के प्लेन्स अलग अलग होने लगे..घर का माहौल ना बिगड़े इसके लिए दोनों के वैचारिक संवाद बंद से हो गए ..वैसे भी संजय वैचारिक मामलों में रेवती को निकृष्ट ही समझते थे और दोनों ने सो काल्ड स्पेस के नाम पर एक दूसरे के मामलों में हस्तक्षेप करना बंद कर दिया. रेवती ने स्नेहा को परवरिश देने में अपने संस्कार अपने अनुभव और ज़िन्दगी के प्रति अपनी समझ का भरपूर प्रयोग किया और स्नेहा उत्तरोतर बढ़ती हुई कक्षा में थी जब संजय ने आबुधाबी के किसी बैंक में अपनी नौकरी पक्की हो जाने का ऐलान किया रेवती और स्नेहा को जल्द ही अपने पास बुला लेने का वादा कर वह पैसा कमाने चला गया .रेवती ने समय काटने के लिए स्नेहा के स्कूल में ही शिक्षिका की नौकरी कर ली..अब दोनों माँ बेटी पूरे समय साथ रहती ..समय बीतता गया संजय उन दोनों को वहां बुला नहीं पाया कभी कुछ कभी कुछ अड़चन आती ही रही ..साल में दो बार भारत आता भी तो स्टॉक मार्केट,इन्वेस्टमेंट्स, रियल एस्टेट..इन सब में ही उलझा रहता रेवती उसके बिना घर और बाहर दोनों में सामंजस्य कैसे बिठा रही है या उसकी भावनात्मक ज़रूरतों की तरफ उसका ध्यान नहीं जाता ..खुद की शारीरिक ज़रूरतें पूरी करने का साधन रेवती बन जाती जिससे रेवती के मन में वितृष्णा भर जाती थी..मन से जुड़े बिना तन जोड़ने की वैवाहिक मजबूरी रेवती को कभी रास नहीं आई और उसकी ये वितृष्णा संजय को उससे शारीरिक रूप से भी दूर करती गयी..स्नेहा कैशौर्यावस्था की दहलीज पर अपनी उम्र से ज्यादा समझदार थी .माँ के मन का खाली कोना उसे समझ आने लगा था ..एक दिन रेवती की पुरानी डायरी स्नेहा के हाथ लग गयी जिसमें ना जाने कितने गीत और गजलें रेवती ने इक्कठे किये हुए थे ..उसने माँ से पूछा कि क्या वो गाती है? रेवती ने कहा गाया करती थी..शादी के बाद तो कभी मौका ही नहीं मिला ..उससे पहले उसने साल का लाइट वोकल का कोर्स किया था ..तभी ये सब गजलें इक्कठी करी थी..स्नेहा ने जिद करके उससे कुछ गजलें सुनी..इतने साल बाद गाते हुए शुरू में रेवती को झिझक हुई पर फिर सुर गले से हो कर हृदय में उतरने लगे और उन सुरों में रेवती का मन डूबने उतरने लगा ..कैसे भूल बैठी वो खुद को....स्नेहा तो मंत्रमुग्ध सी उसे सुन रही थी उसकी माँ का ये रूप उसने जाना ही कब था.. वो क्षण उसे रेवती के बहुत करीब ले आये माँ बेटी से ऊपर उठकर एक अलग सा सम्बन्ध स्थापित हो गया दोनों में ..अब उसने खोद खोद कर माँ से उसकी पसंद नापसंद के बारे में जानना शुरू किया ..और ये जान कर कि माँ को पढने का शौक है पास की एक लाइब्रेरी में उसको रजिस्टर करवा दिया..रेवती अपनी बेटी की परिपक्वता देख कर हैरान थी ..सोच नहीं पा रही थी कि ये १४ वर्षीय लड़की उसके मन को कैसे समझ पा रही है..स्नेहा की ज़रूरतों का ध्यान उसे रहता है क्यूंकि उसने जन्म दिया है उसे..उसके लहू के एक एक कतरे को समझती है वह ..पर ये नन्ही सी जान..उसके मन को समझने लगी है..सोच कर प्यार से भर उठती रेवती ..

(क्रमश:)
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1 comment:

  1. is kist dar kist kahani ko dekh ke muh me pani aa gaya hai.....man hai ki iski sabhi kiston ko print karwa ke aram se padhun....
    roli

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