Tuesday, March 30, 2010

है तुझे भी इजाज़त...(छठी किस्त)

चाय पीते हुए रेवती ने संजय से पूछा -"आप चलेंगे मेरे साथ? "

संजय ने कहा -"नहीं,मुझे कुछ दोस्तों से मिलने जाना है .तुम जाओ "

रेवती का मन हुआ कि जिद करे चलने के लिए..परन्तु ऐसा अधिकार उसने समझा ही नहीं था कभी और जिद करके ले जाने का भी क्या औचित्य , यदि संजय का अपना मन नहीं है .संजय अपनी ख़ुशी से चलेगा तो उसको भी आनंद आएगा .उधर संजय चाह रहा था कि रेवती उससे मनुहार करे और वह उस पर एहसान दिखता हुआ उसके साथ जाए.. जब वार्तालाप सहज नहीं होता तब ऐसे ही दोनों अपने मन में बातों को रोक लेते हैं और वही बातें ग्रंथियां बन जाती है..कितने चेहरे लगा लेते हैं दो इंसान एक ही छत के नीचे रहते हुए भी...

गाड़ी ठीक बजे गयी थी और रेवती कार्यक्रम के लिए निकल गयी ।चंद्रप्रभा जी उसका इंतज़ार ही कर रही थी पहुँचते ही सबसे पहले उन्होंने उसे 'दृष्टि" नामक एन .जी . के ट्रस्टी श्री रजत मेहता जी से मिलवाया .जाने माने उद्योगपति हैं॥"दृष्टि" की स्थापना उन्ही ने करी थी और आज यह संस्था सिर्फ रूडकी ही नहीं पूरे उत्तराखंड अंचल में ज़रूरतमंदों की सहायता के लिए जानी जाती है ..दूरदराज क्षेत्रों में शिक्षा मुहैया करना चिकित्सा सुविधा पहुँचाना कितने ही बेघर लोगों को घर और बेरोजगारों को रोजगार मुहैया कराये हैं इन्होने. . हृदय से कलाकार और बहुत ही डायनामिक व्यक्तित्व के स्वामी ..रेवती पर उनके व्यक्तित्व का असर पहली ही नजर में हो गया..ऊर्जा से भरपूर एक विनम्र व्यक्तित्व पैसा होने का घमंड कहीं छू भी ना गया हो जैसे..सौम्य मुस्कराहट स्नेहयुक्त तरल आँखें और गरिमापूर्ण भावभंगिमा ..उसके सामने हाथ जोड़ कर नमस्कार की मुद्रा में खड़े थे और कह रहे थे- "कल आपका गायन सुना ..तभी चंद्रप्रभा जी से अनुरोध किया था आपको यहाँ बुलाने का ..ऐसे ऐसे हीरे छुपे हैं हमारे शहर में हमें तो मालूम ही नहीं था " रेवती बस मुस्कुरा कर रह गयी .चंद्रप्रभा जी उन दोनों को वार्तालाप में व्यस्त छोड़ क्षमा मांग दूसरे इंतज़ामात देखने चली गयी रेवती सोच रही थी कि यहाँ हर इंसान कितना सहज है किसी की भी उपस्थिति से जरा भी बेचैनी नहीं होती .एक सुकून सा रहता है मन में .
रजत ने रेवती को सोच में डूबा देख कर पूछ लिया ॥और रेवती ने सहज भाव से अपनी सोच उजागर कर दी॥ रजत बहुत जोर से हंस पड़े ..बोले-"यही तो बात है रेवती जी, इंसान दुनियावी जद्दोजहद में इतना उलझ जाता है कि ऐसे सुकून के पल उसको आश्चर्य लगने लगते हैं ..जबकि इंसान सबसे ज्यादा सुकून इसी सहजता में महसूस करता है अब मुझे ही देखिये ना..आधी ज़िन्दगी बीत जाने के बाद अब लगता है जैसे ज़िन्दगी को जी रहा हूँ ..पिता का कारोबार इतना फैला हुआ था कि एम् .बी.ए करने के बाद उसी में जुड़ गया ..व्यवसायिक कुशलता में कोई कमी नहीं थी व्यवसाय दिनोदिन बढ़ोतरी पर था पर कुछ था जो मुझे खालीपन का अहसास कराता था .बचपन से गिटार बजाने का शौक पता नहीं पढाई और व्यवसाय में कहाँ छूट गया .इंसान हर काम के लिए समय निकल लेता है या यूँ कहें कि इतने कामों में उलझा लेता है खुद को कि स्वयं के लिए उसके पास समय नहीं रह जाता ..जबकि मेरा अनुभव है कि यदि हम कुछ पल अपने लिए निकाल लेते हैं तो उन पलों में संचय की गयी ऊर्जा हमें बाकी कामों को और बेहतर तरीके से करने में मदद करती है ..मन में जब बहुत उपद्रव होने लगा तो ध्यान विधियाँ अपनाई मैंने .मन शांत होना शुरू हुआ तो अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनाई देने लगी॥ खुद को ही तो खोज रहा था मैं..'स्व' की खोज में 'अहम्' व्यवधान बना हुआ था ..आगे पीछे लोगों की भीड़ झूठी तारीफें अवसरवादिता चाटुकारिता ..इन सबमें मेरा 'स्व' कहीं दब गया था जिसके कारण मुझे घुटन हो रही थी ..दिन के २४ में से २० घंटे व्यवसाय के बारे में सोचते उनको क्रियान्वित करते निकल जाते थे सामाजिक तौर पर बहुत सफल इंसान था पर खुद की नज़रों में असफल .चेतना जागृत हुई तो खुद को समेटना शुरू किया..दिन में कम से कम घंटे स्वयं के लिए निश्चित किये..जब मैं सिर्फ अपने साथ रह सकूँ..और ऊर्जा संचित होने लगी..
उस ऊर्जा का सकारात्मक उपयोग मुझे बहुत सुकून देता है .आप पैसे के मामले में कितने भी सफल क्यूँ ना हों..जब तक मानसिक शांति और संतोष नहीं है एक इंसान के रूप में आप असफल ही हैं..और वह मानसिक शांति आपको अपनी आत्मा से प्राप्त होती है..पर इंसान उसे बाहर ही खोजता है..और भटकता है॥ जैसे कस्तूरी की खोज में मृग..अपने पैशन को भुला कर कोई भी कार्य करने में इंसान कभी संतुष्ट नहीं होता ..और यदि उसका पैशन ही उसका काम बन जाए तो वो सफलता की बुलंदियों को छू लेता है..जैसे सचिन तेंदुलकर ,लता जी,हुसैन साहब ,अमिताभ बच्चन जी आदि...हम आम इंसान यही सोच लेते हैं की उनके जैसा बनना हमारी किस्मत में नहीं ..और इसी सोच के चलते हम अपने को खोजना बंद कर देते हैं॥ हर इंसान विलक्षण है..कुछ ना कुछ उसमें ऐसा ज़रूर है जो उसे पूरी दुनिया से अलग करता है बस उसी को खोजना है॥ और उसी की खोज एक अनवरत यात्रा बन जाती है..उस यात्रा में बहुत कुछ ऐसा होता है जो मन को सुकून देता है..ऐसा लगता है की ईश्वर ने हमें भेजा है इस धरती पर तो हमसे कुछ ख़ास काम की अपेक्षा है उसे॥ और उसी प्रेरणा के तहत मैं अपने मन के अनुसार जितना योगदान कर सकता हूँ .इस समाज के लिए करता हूँ ..मुझे ख़ुशी है कि कई उच्चा शिक्षा प्राप्त लोग जुड़ गए हैं 'दृष्टि' से जो निस्वार्थ भाव से अपना योगदान दे रहे हैं समाज को.ईश्वर की कृपा से पैसे की कमी कभी नहीं पड़ी हमें..और हम सफल हो रहे हैं ऐसी पौध तैयार करने में जो आगे चल कर घने छायादार वृक्ष बन सकेंगे .यही आत्मिक संतुष्टि है ..'मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल मगर ..लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया " ..यह तो ऐसी ही यात्रा है..

तभी सामने से एक महिला आती नज़र आई ॥और रजत जी ने कहा -"लीजिये, आपको अपनी श्रीमती जी से मिलवाता हूँ..ये हैं मेरी जाने तम्मना गुले गुलज़ार जाने बहार शिखा और यह सुर-कोकिला रेवती जी " शिखा खिलखिला कर हंस पड़ी ..और कहा - "ये ' वक़्त ' पिक्चर का संवाद खूब चुराया है आपने " और फिर रेवती की तरफ मुखातिब हो कर बोली -"आपसे मिल कर बहुत ख़ुशी हुई, कल रजत ने तो आपकी तारीफों के पुल बाँध दिए थे और तभी से उत्कंठा थी आपसे मिलने की "..
रेवती इस स्वागत से सम्मोहित थी..कितना अपनापन कोई नाटकीयता नहीं ..कितनी उन्मुक्तता है यहाँ हर सम्बन्ध में ..
ये सब बातें हो ही रही थी कि कार्यक्रम के संचालक की आवाज़ माइक पर गूँज गयी॥ और सबका ध्यान उधर ही चला गया ..रेवती रजत जी की बातों से अभिभूत थी ..और उनको आत्मसात करने की कोशिश में थी..कार्यक्रम के बाद रजत जी ने उसको सधन्यवाद विदा देते हुए फ़ोन नम्बर्स का आदान प्रदान किया ..और कहा -" आशा है अब आप भी हमारी सांस्कृतिक संस्था की रेगुलर सदस्य जल्द ही बनेंगी" ..रेवती बस मुस्कुरा दी॥ और घर चली आई॥

संजय घर पर ही था टी.वी देख रहा था .. रेवती का प्रफुल्लित चेहरा देख कर एक अजीब सी कचोट का एहसास हुआ उसे..और उसने उसकी उत्फुल्लता को नज़रंदाज़ करके अपना आक्रोश जता दिया॥ पर रेवती जिस ऊर्जा का संचय करके वहां से लौटी थी उसने इस बात को नोटिस नहीं करने दिया..सही बात है..जब हम स्वयं सकारात्मक ऊर्जा से भरे होते हैं तब किसी का नकारात्मक दृष्टिकोण हमें प्रभावित नहीं कर पता ..और उसके कारण होने वाला ऊर्जा का क्षय रुक जाता है॥ गुनगुनाती हुई रेवती खाने की तयारियों में जुट गयी..यन्त्रचालित सी काम कर रही थी पर उसका मस्तिष्क आज शाम होने वाली घटनाओं का पुनरावलोकन कर रहा था.रह रह कर रजत जी का व्यव्क्तित्व नज़रों के सामने घूम जाता और उनकी सहजता ..कितने खुले मन से सब बताते जा रहे थे, चंद्रप्रभा जी हों या रजतजी..ऐसा लगता है जैसे हमेशा दूसरों को राह दिखाने के लिए तत्पर रहते हैं..द्वन्द में फंसे व्यक्तियों को द्वन्द से बाहर आने का रास्ता . और शिखा जी भी कितना पारदर्शी व्यक्तित्व रखती हैं..चंद्रप्रभा जी तो अविवाहित हैं पर शिखा जी विवाह के बन्धनों में जैसे जकड़ी हुई महसूस ही नहीं होती ..पर वह खुशकिस्मत हैं कि उनको रजत जी जैसे पति मिले हैं ..इन्ही सब सोचों में डूबे कब खाना बन गया पता ही नहीं चला
खाने की टेबल सजा कर उसने संजय को बुलाया ॥संजय का खिंचा हुआ चेहरा थोड़ी देर के लिए उसे सहमा गया पर जल्द ही उससे उबर कर वह उससे एक महीने के कार्यक्रम के बारे में पूछने लगी..रेवती ने कहा -"माँ पिता जी आपके आने की बाट जोह रहे हैं..उनसे मिले हुए कितने दिन हो गए ..कब चलेंगे उनसे मिलने ?'
संजय के माता पिता ऋषिकेश में स्वर्गाश्रम के नजदीक बने फ्लैट्स में रहते थे ..उनका जीवन वहां बहुत आन्नद पूर्वक बीत रहा था ..प्रकृति का साथ ..गंगा का किनारा स्वच्छ निर्मल जलवायु.. संजय के पिता को लेखन का शौक था अक्सर उनकी आध्यात्मिकता पर लिखी रचनायें 'अखंड ज्योति " या 'साधना पथ' जैसी पत्रिकाओं में छपती रहती थी .रेवती को उनका साथ और ऋषिकेश की जलवायु बहुत पसंद थी ..उसने संजय को कह कर १० दिन के लिए ऋषिकेश जाने का कार्यक्रम बना लिया.. अगले शनिवार इतवार स्नेहा जायेगी तब तक हम लौट आयेंगे ..
बातों का विषय दूसरी तरफ मुड जाने से संजय की तनी हुई मुखमुद्रा कुछ सहज हुई..और रेवती ने भी राहत की सांस ली ..
अगले दिन दोनों ऋषिकेश के लिए निकल पड़े..वहां के प्राकृतिक वातावरण में रेवती को बहुत सुकून मिला..मनप्राण जैसे निर्मल हो उठे ..गंगा किनारे बैठ कर सुबह शाम वह सुरों का अभ्यास करती रहती ..और खुद को खुद के और नज़दीक पाती..एक अनजानी ऊर्जा से भरती जा रही थी वह॥ उसे अब संजय के कटाक्ष भी कम आहत करने लगे थे हर समय मुस्कराहट खिली रहती उसके मन पर ऐसा लगता था .बीच बीच में चंद्रप्रभा जी से और रजत जी से बात हो जाया करती थी फ़ोन पर..उन्होंने उसको सूचना दी थी कि महीने के आखिरी शनिवार को एक गेट टुगेदर का आयोजन किया है जिसमें कई साहित्यिक और सांस्कृतिक कलाकार शामिल होंगे ..रेवती को सबसे मिलने का मौका मिलेगा इसलिए वह उसमें आने का कार्यक्रम ज़रूर बना ले ..रेवती ने सब कुछ समय पर छोड़ दिया था .रजत जी से जितना वह बात करती थी उतना ही उनकी तरफ खिंचाव महसूस करती थी और फिर खुद को ही लानत मलानत करती थी..पर उसके हृदय पर जैसे उसका काबू नहीं रह गया था ..सोचों में हर समय रजत जी का रहना और उनके फ़ोन का इंतज़ार करना उसकी दिनचर्या का हिस्सा बन गया था ..
अगला हफ्ता स्नेहा के साथ कैसे बीत गया पता ही नहीं चला १८ साल पार कर चुकी स्नेहा अभी भी रेवती के सामने बच्ची बन जाती थी ॥हाँ इस बार उसकी चुहल थोडा अलग किस्म की थी..जैसे ही घर में घुसी रेवती को देखते ही बोली-वाओ!!! माम..क्या बात है॥ यू आर लुकिंग यंग !! ग्लोइंग फेस ..स्पार्कलिंग आईस ..फीलिंग टु फाल इन लव विद यू !!!
रेवती ने हँसते हुए उसे गले से लगा लिया और कहा -शैतान कहीं की..मजाक करना सीख गयी है माँ से ॥!!"
स्नेहा ने कहा-" नहीं माम ..आई एम् सीरियस .."
रेवती ने कहा -"अच्छा आराम से बात करेंगे. आते ही शुरू हो गयी पागल .."

और फुर्सत मिलते ही रेवती ने अपने सिरे पर हुए डेवलपमेंट्स बताये और बताया कि वह इस फेज़ को बहुत एन्जॉय कर रही है..स्नेहा बहुत खुश हुई ..चंद्रप्रभा जी और रजत जी जैसे दोस्त बना कर माँ बहुत खुश है यह उसे सुकून दे गया ..रेवती ने उसे गेट टुगेदर में साथ चलने को कहा और वह भी बहुत उत्सुक थी उन दोनों से मिलने केलिए ..

शनिवार की शाम तीनो ही उस गेट टुगेदर में साथ चले रेवती खुश थी कि संजय अपने मन से उसके साथ चल रहा है..हालाँकि संजय का शौक नहीं था उन सब विधाओं में ..पर वह भी उत्सुक था जानने के लिए कि कैसे लोगों से रेवती मिलती जुलती है ..एक कम्युनिटी सेंटर के खूबसूरत लान में छोटे छोटे वृतों में कुर्सियां लगा रखी थी..और सब अपने अपने ग्रुप बना कर चर्चाएं कर रहे थे .बड़ा बेतकल्लुफी वाला माहौल था ..खुशनुमा लोग खुशनुमा माहौल कोई लीपा पोती नहीं कोई नाटकीयता नहीं..हवाओं में भी जैसे हंसी के स्पंदन तैर रहे थे ..स्नेहा तो बहुत ही प्रभावित हुई ,संजय भी अछूता नहीं रह पाया उस प्राकृतिक माहौल से थोड़ी देर में वह भी सहज महसूस करने लगा ..चंद्रप्रभा जी और रजत जी ने संजय और स्नेहा का बहुत ही गर्मजोशी से स्वागत किया ..पूरी शाम आनंदमयरही और भिन्न भिन्न विषय पर चर्चाएं होती रही..जिस ग्रुप में चंद्रप्रभा जी रेवती, शिखा ,संजय, रजत जी थे उसमें विवाह और स्त्री पुरुष संबंधों पर विमर्श चल निकला..संजय और रेवती हतप्रभ से सभी लोगों के विचार सुन रहे थे..जिन विषयों पर बोलना सभ्य समाज में शालीन नहीं समझा जाता उस पर वहां कितनी उन्मुक्तता से विचारविमर्श किया जा रहा है ..रेवती को चुप देख कर शिखा ने उसे कहा-" तुम भी तो कुछ कहो क्या सोचती हो समाज में नारी की स्थिति के बारे में ?".रेवती तो जैसे हकला सी गयी..क्या कहे वह..बातों का सूत्र पकड़ा रजत ने ..और उसने कहा-'यह विषय हमेशा से डिबेट का विषय रहा है..नारी जाति का शोषण इतना पुराना हो गया है कि नारी स्वयं अपनी पहचान खोती जा रही है ..इस सन्दर्भ में मैं यशपाल जी की किताब 'चक्कर क्लब' में लिखा हुआ ये अंश उद्धृत करना चाहूँगा - "भारत में क्या होता था सो हमें भी मालूम है. हिन्दुओं कि स्मृतियों में लिखा है, "स्त्री शूद्र नाधीयताम" अर्थात स्त्री और शूद्र को पढ़ाना नहीं चाहिए. वज़ह, स्त्री और शूद्र को पढ़ाया जायेगा तो वह सेवा के काम में नहीं रहेंगे, दलील करने लगेंगे. बैल को आप बाजीगरी का खेल सिखाईये तो वह हल थोड़ा ही जोतेगा॥कहेगा, मैं अपनी इच्छा से काम करूँगा और मालिक की बराबरी का दावा करेगा।"
इतना सुन कर सब हंस पड़े..स्त्री कि बराबरी बैल से..और चर्चा चल पड़ी नारी भावनाओं की..उसके शारीरिक और भावनात्मक समन्वय की..रेवती यह देख कर हैरान थी कि स्नेहा इस विमर्श में खुले मन से हिस्सा ले रही थी ..और उसके विचार जान रेवती को ख़ुशी थी कि उसने अपने मन को प्रतिबंधित नहीं किया है ही उसके मन में किसी भी बात का कोई टैबू है..जैसा कि रेवती के मन में हुआ करता था ..ग्रंथियां नहीं हैं ..ओशो , अमृता प्रीतम ,मंटो, इस्मत जैसे कितने ही साहित्यकारों कि चर्चाएं हुई.शिखा ने कहा -यह कन्यादान की परंपरा भी यही बताती है की स्त्री को एक जीता जगता इंसान नहीं एक वस्तु समझा जाता रहा है ..दान तो किसी वस्तु का ही होता है ना
. जिस वस्तु का दान किया जा सकता है, उसकी इच्छा या अनिच्छा का, उसकी स्वतंत्रता का प्रश्न ही नहीं उठ सकता. स्वयंवर किया जाता होगा परन्तु वह स्त्री को स्वतंत्रता देने के लिए नहीं, बल्कि इसलिए कि वीर पुरुष आपस में औरत के लिए झगडे नहीं. स्वयंवर के मैदान में औरत को कौड़ी की तरह उछाल फेंका, जिस के भाग्य में जा पड़ी उसकी किस्मत ! उसमें लड़ने झगड़ने कि कोई बात नहीं." चंद्रप्रभा जी ने कहा-हाल ही में अमृता जी का एक लेख पढ़ा "कड़ी धूप का सफ़र" ..उन्होंने नारी जाति की वर्तमान स्थिति किस तरह घटित हुई होगी उस पर चर्चा की है .एक समय था जब नारी को शक्ति का स्वरुप माना जाता था ..पुरुष और नारी का अपना अपना वजूद मिल कर दोनों को पूर्ण करता है..फिर वक़्त आया जब अर्धनारीश्वर का फलसफा खो गया...और दासता पैदा हुई. शिव शक्ति जैसा चिंतन खो गया तो जड़ता पैदा हुई. शक्ति खो गयी--तो उसके प्रतिक्रम में खौफ पैदा हुआ. धर्म खो गया तो उसके प्रतिक्रम में मज़हब पैदा हुआ. आत्मा खो गयी---तो शरीर एक वस्तु बन गया बेचने और खरीदने कि वस्तु ॥ "
चर्चाएं गरम हो उठी थी..सबके अपने अपने वर्सन ..

रेवती ने इन सबको पढ़ा नहीं था पर चर्चा का विषय देख उसने इन सबको पढने का मन बना लिया ..वहां के खुले वातावरण में रेवती का मन जैसे खुल गया था॥ शालीनता और हिपोक्रेसी का फरक उसे साफ़ समझ रहा था॥ सहज स्वाभाविक जीवन से जुडी बातों को असभ्य कह कर हम कौन सी शालीनता का परिचय दे रहे होते हैं ? और स्वाभाविकता का दमन विकारों को जन्म देता है ग्रंथियां बन जाती हैं..वह भी क्या अपनी भावनाओ का दमन नहीं कर रही ..??
इन्ही सब सोच विचार में डूबती उतरती वह घर को लौट आई..अंतर्मन में जैसे हलचल मच गयी थी॥ अपने अन्दर छुपी नारी को जानने की तीव्र उत्कंठा ..शायद इसी एहसास की बात रजत जी कर रहे थे '' स्व " की खोज ..
और उसने रजत जी और चंद्रप्रभा जी के सहयोग से वह सारा साहित्य पढ़ डाला जो उसकी सोचों को दृढ़ता प्रदान कर सकता था ..ख़ास तौर पर ओशो साहित्य। .ओशो को उसने हमेशा दुनिया की नज़रों से जाना था॥ एक विद्रोही के रूप में॥ पर अब उनको पढ़ कर जाना की वह आत्मिक चेतना जागृत हुए इंसान का जीता जगता उदहारण थे और उन्होंने अपने संदेशों में यही आवाहन किया है ..स्नेहा से भी उसके विमर्श होते रहते और अपनी समझ और अनुभव के बल पर उसने स्नेहा को भी एक दृढ सोच का आधार दिया..
(क्रमश:)
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